




गोपाल झा.
‘साधु’ शब्द सुनते ही मन में एक सौम्य, शांत, ओजस्वी छवि उभरती है। एक ऐसा व्यक्तित्व जो निष्पक्ष हो, समदर्शी हो, जो किसी संप्रदाय, दल, विचारधारा से ऊपर उठकर मानव मात्र की भलाई के लिए समर्पित हो। लेकिन आज जब हम अपने चारों ओर नज़र डालते हैं, तो यह आदर्श छवि धुंधली पड़ती जा रही है। कहीं भगवा वस्त्रधारी लोग मंचों पर राजनीतिक नारेबाजी करते दिखाई देते हैं, तो कहीं सोशल मीडिया पर द्वेष और विष वमन करते हुए। यह स्थिति केवल चिंताजनक नहीं, आत्ममंथन के लिए भी बाध्य करती है।
हम सब किसी न किसी रूप में समाज की बुनियाद हैं, चाहे हम शिक्षक हों, डॉक्टर हों, इंजीनियर, पत्रकार या आईएएस। हमारे पास कर्तव्यों की एक स्पष्ट रूपरेखा है, जिसे हम अपने-अपने पेशे में निभाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम उसे ‘कर्तव्य’ मानकर निभाते हैं, या केवल ‘काम’ समझकर? क्या हमारे भीतर वह निष्ठा, वह पवित्रता शेष है जो हमारे कर्म को समाजोत्थान का माध्यम बनाती है?
वस्त्र शरीर को ढकते हैं, लेकिन आत्मा को नहीं। जब मन मलिन हो, विचार कलुषित हों और आचरण छलपूर्ण हो, तब चाहे व्यक्ति भगवा धारण करे या सफेद, उसका कोई महत्व नहीं। दुर्भाग्यवश आज समाज में काफी ऐसे लोग ‘साधु’ का चोला पहनकर विचर रहे हैं, जो भीतर से न केवल खोखले हैं, बल्कि समाज को भी खोखला करने का काम कर रहे हैं। वे व्यक्तिपूजक हैं, नीतिपूजक नहीं। वे आत्मप्रशंसा में डूबे रहते हैं, आत्मशुद्धि में नहीं।
साधु वह नहीं जो जंगलों में वास करे, या भिक्षा में जीवन यापन करे। साधु वह है जो अपने अंतःकरण को जीत चुका हो। साधु वह है जिसकी वाणी में मधुरता हो, दृष्टि में करुणा हो और कर्म में सेवा हो। वह समाज का पथप्रदर्शक होता है, लेकिन दल विशेष का प्रचारक नहीं। वह संयम का प्रतीक होता है, लेकिन भय या दिखावे का साधन नहीं।
सच्चे साधु के कुछ मूल गुण इस प्रकार हैं,
निःस्वार्थता: सच्चा साधु किसी स्वार्थ, प्रसिद्धि, या राजनीतिक लाभ की आकांक्षा नहीं करता।
शांतचित्तता: वह क्रोध, अहंकार और द्वेष से परे होता है। उसकी वाणी सदा शांति और समाधान का संदेश देती है।
ज्ञान का प्रकाश: वह केवल ग्रंथों का पाठ नहीं करता, अपितु उन्हें आत्मसात कर जीवन में उतारता है।
सेवा भावना: वह पीड़ित मानवता के साथ खड़ा होता है, न जाति देखकर, न धर्म देखकर, केवल करुणा देखकर।
निरपेक्ष दृष्टिकोण: सच्चा साधु राजनीति का उपकरण नहीं होता। वह सत्ताओं से दूर, सत्य के निकट होता है।
साहसिक नैतिकता: जब समाज भटकता है, तब वह मुखर होकर पथ प्रदर्शन करता है, भले ही वह सत्ता को अप्रिय लगे।
ढोंग की दुनिया और सोशल मीडिया का आईना
आज सोशल मीडिया पर एक ही प्रश्न पूछा जाता है, ‘आपके मन में क्या चल रहा है?’ और लोग बेहिचक जवाब दे देते हैं, चाहे वह विद्वेष हो, विष हो या विकृति। यह समाज का सच है, जो पहले छिपा रहता था, अब प्रकट है। इसमें कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो भगवा वस्त्र में बैठकर समाज को विषपान करा रहे हैं। परिणामस्वरूप, लोगों का विश्वास टूटता जा रहा है, वे सच्चे संतों से भी कतराने लगे हैं। यह दुखद है कि आज समाज ‘वेष’ पर विश्वास करता है, ‘विवेक’ पर नहीं। और इसी का लाभ उठा रहे हैं वे पाखंडी, जो साधु का चोला पहनकर शोषण, प्रचार और भ्रम फैला रहे हैं। वे समाज को विभाजित कर रहे हैं, धर्म, जाति और भाषा के नाम पर। वे साधु नहीं, सत्ता के एजेंट हैं।
साधु कोई समय विशेष की उपज नहीं। वह हर युग में प्रासंगिक है। वह आदर्श है, आस्था है, आत्मा की पुकार है। कबीर, तुलसी, विवेकानंद, रविदास जैसे संतों ने कभी सत्ता की चाटुकारिता नहीं की। उन्होंने सत्य कहा, भले ही वह कटु हो। उन्होंने समाज को जोड़ने का कार्य किया, तोड़ने का नहीं। समाज के हर वर्ग को यह सोचना होगा, क्या हम अपने-अपने कर्तव्यों को निष्ठा के साथ निभा रहे हैं? क्या हम सत्य के प्रति ईमानदार हैं? क्या हम अपने आचरण से अगली पीढ़ी को प्रेरणा देंगे या भ्रमित करेंगे? साधु की पहचान उसके वस्त्रों से नहीं, उसके विचारों और व्यवहार से होती है।
इसलिए आवश्यकता है, सजग रहने की, सतर्क रहने की। क्योंकि आज साधु के भेष में कई ‘लंपट’ घूम रहे हैं, जो हमें सत्य से दूर कर रहे हैं। और याद रखिए, जब समाज सच्चे साधुओं को पहचानना छोड़ देता है, तब वह अंधकार की ओर अग्रसर होता है।
साधु वह है
जो ‘स्व’ से ‘समष्टि’ की ओर चले,
जो ‘मौन’ में भी ‘संदेश’ दे,
जो ‘शांति’ में भी ‘क्रांति’ हो।
ऐसे साधु को पहचानिए, और शेष से सावधान रहिए। यही समय की मांग है।





