गोपाल झा.
मरुप्रदेश न सिर्फ त्याग और बलिदान के लिए जाना जाता है बल्कि यहां पर भक्ति और नृत्य कला का भी अपना महत्व रहा है। सियासत और नृत्य के बीच भी अटूट संबंध है। चुनाव से पहले नेताजी भले पखवाड़े भर के लिए जनता के सामने ‘ता-ता थैया’ करते हों लेकिन जीतने के बाद पांच साल तक वे जनता को अपनी धुन पर नचाने से बाज नहीं आते। यही राजनीति है। लोकतंत्र की परंपरा है। अब ‘पंजे वाली पार्टी’ के चीफ साब को ही लीजिए। उनका ‘गमछा डांस’ लोकप्रियता के रिकार्ड तोड़ रहा है। चीफ साब के समर्थकों की मानें तो ‘फूल वाली पार्टी’ के नेता इस लोकप्रियता से ‘ईर्ष्या की आग’ में झुलस रहे हैं। लेकिन चीफ साब यह सब महसूस कर आनंद की अनुभूति ले रहे हैं। बताया यह भी जा रहा है कि इस ‘गमछा डांस’ से चीफ साब को ‘परम आनंद’ की प्राप्ति तो हुई ही है, साथ में ‘मनवांछित फल’ भी मिला है। अब आप यह मत पूछिएगा कि आखिर ‘मनवांछित फल’ का मतलब क्या है ? समझने वाली बात यह है कि नेताजी का नृत्य आम जन पर छाप छोड़ रहा है। चीफ साब के लिए ये क्या कम है ?
‘महारानी’ की अहमियत
‘फूल वाली पार्टी’ के राज्य प्रभारी ने ‘महारानी’ को लेकर बड़ी बात कह दी। ‘योगी राज’ से ताल्लुक रखने वाले प्रभारी जी ‘दिल्ली दरबार’ से होकर मरुप्रदेश में दाखिल होते हैं। टास्क लेकर आते है। कब, कहां और क्या बोलना है, समझकर आते हैं। इस बार भी आए। उचित मंच पर ‘मैसेज’ देकर रवाना हो गए। मरुप्रदेश में उप चुनाव की गूंज है। जाहिर है, असर पड़ेगा। लेकिन उसके बाद ? क्या, सचमुच ‘महारानी’ की अहमियत को ‘दिल्ली दरबार’ महसूस करने लगा है ? अगर हां, तो फिर सूबे की सियासत में व्यापक बदलाव तय है। लेकिन यह इतना आसान है क्या ? लग तो नहीं रहा। क्योंकि ‘दिल्ली दरबार’ कठोर है तो ‘महारानी’ का दिल भी पसीजने के लिए तैयार नहीं। फिर भी करीब साल भर की माथापच्ची के बाद ‘दिल्ली दरबार’ ने विशेष ‘दूत’ के बहाने संदेश पहुंचाया है तो इससे ‘महारानी के दल’ में उम्मीद की किरण तो दिखी ही है। भविष्य कुछ भी हो, इतना तय है कि सूबे की सियासत से ‘महारानी की अहमियत’ को नजरअंदाज करना मुमकिन नहीं। वैसे आपको क्या लगता है ?
‘आत्मज्ञान’ की तलाश!
अफसर न सिर्फ आम जनता बल्कि जनप्रतिनिधियों के बनिस्पत खुद को ‘बड़ा’ समझते हैं। जनप्रतिनिधि सिर्फ आम जनता नहीं बल्कि अफसरों को अपना ‘मातहत’ मानते हैं। खबरनवीस खुद को अफसर और जनप्रतिनिधियों से अलग महसूस करते हैं। जनता, अफसर और जनप्रतिनिधियों सहित खबरनवीस को कुछ और समझती हैं। सच तो यह है कि कोई किसी को कुछ नहीं समझ रहा। बस, यही तो समस्या है। बुजुर्गों का कहना है कि जिस दिन सब के सब सिर्फ खुद को समझना शुरू कर देंगे, दूसरों को समझने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। संभवतः इसे ‘आत्मज्ञान’ कहते हैं। लेकिन जब संपूर्ण जगत ‘भ्रम’ के आवरण में हो तो ‘आत्मज्ञान’ मिलना आसान नहीं होता। लोकतंत्र में ‘आत्मज्ञान’ की अलख जगाने के लिए किसी ‘अवतार’ की जरूरत है। इसलिए भी क्योंकि यहां संपूर्ण जीवन अवतारों के भरोसे है। कोई खुद कुछ नहीं करना चाहता। फिर ‘आत्मज्ञान’ कोई ‘ऑनलाइन ऑर्डर’ या बाजार से मिलने से रहा। बहरहाल, आइए, ‘आत्मज्ञान’ की संभावनाओं को टटोलते हैं।
बातों से नशे का नाश!
मरुप्रदेश के सिंचित और खुशहाल इस जिले को नशा लील रहा है। जी हां। यह जिला हरियाणा सीमा पर स्थित है। पंजाब भी नजदीक। खबरों के मुताबिक, हर माह दर्जन भर लोग बेमौत मर रहे। जिला मुख्यालय पर कॉलोनियां नशे की गिरफ्त में हैं। कई परिवारों का नाश हो गया लेकिन नशा तो नशा है, उसका विनाश कैसे हो? गंभीर बात है कि जनता के वोटों से बने जनप्रतिनिधियों को इस गंभीर त्रासदी से कोई फर्क नहीं पड़ता। अफसर तो अफसर ठहरे, साल-दो साल तक रहने वाले। उन्हें क्या फर्क पड़ने वाला। अलबत्ता, जिले के ‘लाट साब’ नशे के खिलाफ बातें कर आम जनता का दिल जीतने में जुटे हुए हैं। जहां भी जाते हैं, नशे पर रटा-रटाया भाषण झाड़कर लौट जाते हैं। अखबारों में उनका भाषण स्थान हासिल करता है, जनता चर्चा कर लेती है और ‘‘लाट साब’ का दिल ‘गार्डन-गार्डन’ हो जाता है। खबरों को पढ़कर अब चर्चा होने लगी है कि क्या बातों से नशे का नाश संभव है ? लगता तो नहीं। प्रशासन को भाषण की जगह कठोर कार्रवाई करनी चाहिए। नशा बेचने वालों पर शिकंजा कसना चाहिए। जो लोग दल-दल से बाहर निकलना चाहते हैं, उनके लिए आवासीय कैम्प का प्रबंध करना चाहिए। लेकिन ये क्या ? सिर्फ भाषण ? अलबत्ता, ‘लाट साब’ तक बात पहुंचाई गई कि वे अभियान को ‘कागजों’ से बाहर लाएं और धरातल पर काम करें। तभी हो सकेगा नशे का नाश। वरना, सब कुछ बातें हैं, बातों का क्या ?