




डॉ. संतोष राजपुरोहित.
मानव सभ्यता के विकास की जब भी चर्चा होती है, तो दो शक्तियाँ लगातार उभरकर सामने आती हैं, धर्म और अर्थशास्त्र। एक ने मानव को नैतिकता, कर्तव्य और जीवनशैली की दिशा दी, तो दूसरे ने संसाधनों के उत्पादन, वितरण और उपभोग की व्यवस्था को सुसंगठित किया। अक्सर इन दोनों को अलग-अलग क्षेत्र मान लिया जाता है, लेकिन सच्चाई यह है कि धर्म और अर्थशास्त्र एक-दूसरे को गहराई से प्रभावित करते हैं। धर्म जहां आर्थिक आचरण को दिशा देता है, वहीं आर्थिक संरचनाएं धर्म की संस्थाओं और परंपराओं को आकार देती हैं। धार्मिक विश्वास किसी व्यक्ति या समुदाय के उपभोग, बचत, निवेश और दान जैसे निर्णयों को गहराई से प्रभावित करते हैं। हिंदू धर्म में अपरिग्रह और दान की अवधारणाएं आर्थिक लालच पर नियंत्रण की सीख देती हैं। इस्लाम सूद (ब्याज) को निषिद्ध मानते हुए पारदर्शी और निष्कलंक आर्थिक व्यवहार पर जोर देता है। ईसाई धर्म में दसवां भाग देने की परंपरा आर्थिक पुनर्वितरण को बढ़ावा देती है। बौद्ध धर्म का मध्यम मार्ग और संयम संतुलित उपभोग और संतोष की प्रेरणा देता है। इन आदर्शों के बीच यह स्पष्ट होता है कि धार्मिक सिद्धांत केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि व्यवहारिक आर्थिक जीवन को भी दिशा देते हैं।
धार्मिक संस्कार और आर्थिक गतिविधियाँ
धार्मिक अनुष्ठान जैसे-यज्ञ, व्रत, तीर्थयात्रा, मेले और उत्सव, न केवल आध्यात्मिक आस्था के प्रतीक हैं, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी गति देते हैं। इनसे जुड़े क्षेत्रों में रोजगार, व्यापार और सेवाओं की बहुलता होती है, जो सामाजिक स्तर पर आर्थिक विकास को गति देती है।
प्राचीन भारत में धर्म और अर्थव्यवस्था
मठ और मंदिर प्राचीन भारत में केवल पूजा स्थल नहीं थे। ये कृषि व्यवस्था के केंद्र, शिक्षा के गढ़, और सामाजिक पुनर्वितरण के माध्यम थे। आज भी तिरुपति, वैष्णो देवी, अजमेर शरीफ जैसे धार्मिक स्थल लाखों लोगों को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रोजगार उपलब्ध कराते हैं और स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करते हैं।

वक्फ और ट्रस्ट: समाजसेवा का धर्माधारित ढांचा
मुस्लिम समाज में वक्फ संपत्तियाँ, और हिंदू धर्म में धार्मिक ट्रस्ट, आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज कल्याण में अहम भूमिका निभा रहे हैं। ये संस्थाएं एक वैकल्पिक विकास मॉडल प्रस्तुत करती हैं जो राज्य और बाजार के बाहर समाज के सहयोग से संचालित होता है।
काम को कर्म मानने की परंपरा
भारतीय धार्मिक परंपरा में कार्य को पूजा कहा गया है। यह दृष्टिकोण कार्य संस्कृति में नैतिकता और उत्तरदायित्व का समावेश करता है। श्रमिक को ‘सेवक’ के रूप में देखने की परंपरा से सामाजिक गरिमा और कार्य के प्रति प्रतिबद्धता उत्पन्न होती है। धार्मिक उपदेश व्यक्ति को उसकी आर्थिक भूमिका के प्रति ईमानदार बनाते हैं।
उपभोक्तावाद बनाम संयम
आधुनिक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था उपभोक्तावाद पर आधारित है, जहां अधिक से अधिक उपभोग को ही विकास का मानक माना जाता है। वहीं धर्म संयम, संतोष और आवश्यकता-आधारित खपत की शिक्षा देता है। यह द्वंद्व आज टिकाऊ विकास और पर्यावरणीय संतुलन की दृष्टि से अत्यंत प्रासंगिक है। धार्मिक विचारधारा नैतिक खपत, दानशीलता, और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देकर आधुनिक आर्थिक संरचना में संतुलन स्थापित कर सकती है।
कर नीति और धर्म
कई देशों में धार्मिक दान जैसे ज़कात, दान, चर्च-डोनेशन आदि पर कर छूट दी जाती है। यह नीतिगत रूप से यह स्वीकारोक्ति है कि धर्म सामाजिक पुनर्वितरण में सहायक है और राज्य इसे प्रोत्साहित करना चाहता है। नैतिक पूँजीवाद की अवधारणा भी धर्म से ही प्रेरित है, जिसमें लाभ के साथ-साथ पारदर्शिता, जिम्मेदारी और नैतिकता को प्रमुखता दी जाती है।
आस्था से अर्थव्यवस्था तक
भारत में धार्मिक पर्यटन एक प्रमुख आर्थिक गतिविधि बन चुका है। कुंभ मेला, अमरनाथ यात्रा, हरिद्वार स्नान, जगन्नाथ रथ यात्रा, चारधाम यात्रा आदि न केवल आध्यात्मिक महत्व रखते हैं बल्कि परिवहन, होटल, हस्तशिल्प, खानपान और सुरक्षा जैसे क्षेत्रों को जीवंत रखते हैं।
वित्तीय समावेशन में धर्म की भूमिका
धर्म-आधारित वित्तीय व्यवस्थाएं गरीब और उपेक्षित समुदायों को सहारा देती हैं। इस्लामिक बैंकिंग में ब्याज रहित प्रणाली गरीबों को ऋण उपलब्ध कराने का माध्यम बनती है। भारत में कुछ धर्म-आधारित सहकारी संस्थाएं ग्रामीण क्षेत्रों में वित्तीय सेवाएं उपलब्ध करा रही हैं। विभिन्न धर्मों की दान परंपराएं सामाजिक न्याय को आर्थिक स्वरूप प्रदान करती हैं, हिंदू धर्म का अन्नदान, इस्लाम का ज़कात, सिख धर्म का लंगर, ईसाई धर्म का चर्च डोनेशन सिस्टम। ये परंपराएं समाज के भीतर संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण की दिशा में कार्य करती हैं। धर्म और अर्थशास्त्र का संबंध केवल अध्यात्म और संसार के बीच का नहीं है, बल्कि यह मानवीय मूल्यों और व्यावहारिक जीवन के बीच की वह कड़ी है, जो संतुलन, न्याय और समावेशन को संभव बनाती है। आज जब वैश्विक अर्थव्यवस्था सामाजिक विषमता, नैतिक पतन और पर्यावरणीय संकट से जूझ रही है, तब धर्म-आधारित आर्थिक दृष्टिकोण हमें एक टिकाऊ, नैतिक और मानव केंद्रित मॉडल की ओर ले जा सकता है।
-लेखक भारतीय आर्थिक परिषद के सदस्य हैं





