सरकार और न्यायपालिका में तकरार!

शंकर सोनी. 

भारतीय संविधान में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के संबंधों में सद्भावना बनाए रखने के लिए हमने नियंत्रण व संतुलन व्यवस्था को भी अपनाया हुआ है, जो हमारे संविधान का मूल ढांचा है। संविधान लागू होने के बाद न्यायपालिका व व्यवस्थापिका आमने-सामने आई पर राष्ट्रपति के हस्तक्षेप से संवैधानिक संकट टल गया। अब सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति को लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका में मचे घमासान से संवैधानिक फिर से खड़ा हो चुका है। जो संविधान के प्रावधानों की कमियों को सामने ला रहा है। 
जजों की नियुक्ति से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों की बात करे तो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 (2) के अनुसार राष्ट्रपति सर्वाेच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से परामर्श के बाद जजों नियुक्ति करते हैं। इस व्यवस्था के अनुसार 1993 तक सर्वाेच्च न्यायालय के जज और सरकार मिलजुल कर जजों की नियुक्तियां कर रहे थे। पारस्परिक सहमति से सरकार अपनी पसंद के जज लगवा रही थी और जज अपनी पसंद के जज नियुक्त कर रहे थे।
पर पदोन्नति में वरिष्ठता का ध्यान रखा जाता था। इस व्यवस्था में सबसे पहले इंदिरा गांधी ने राजनैतिक हस्तक्षेप कर सर्वाेच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की वरिष्ठता के आधार किए जाने की प्रथा को तोड़ा था। 
 सर्वाेच्च न्यायालय ने जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका के हस्तक्षेप को दूर करने के लिए 1993 से कॉलेजियम सिस्टम लागू कर दिया। जो अब तक चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के साथ 4 वरिष्ठ जज इस कॉलेजियम सिस्टम का हिस्सा होते हैं।
केंद्र सरकार की केवल इतनी भूमिका होती है कि अगर किसी वकील का नाम हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जज बनाने के लिए बढ़ाया जा रहा है, तो सरकार इंटेलिजेंस ब्यूरो से उनके बारे में जानकारी ले सकते हैं।
 केंद्र सरकार कोलेजियम की ओर से आए इन नामों पर अपनी आपत्ति जता सकता है और स्पष्टीकरण भी मांग सकता है।
अगर कॉलेजियम द्वारा सरकार के पास एक बार फिर उन्हीं नामों को भेजा जाता है तो सरकार उन्हें मानने के लिए बाध्य होती है। तदोपरांत कानून मंत्रालय से मंजूरी मिलने के बाद राष्ट्रपति की मुहर से जजों की नियुक्ति हो जाती है। पर अब सरकार खुल कर कोलेजियम सिस्टम का विरोध कर रही है।
 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल की शुरुआत में ही कॉलेजियम सिस्टम को खत्म कर जज नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार, विपक्ष और जानकारों को शामिल करके आयोग बनाने की व्यवस्था लाने के लिए 99वां संविधान संशोधन अधिनियम 2014 पारित किया। यह संशोधन अधिनियम 99 का फेर बन गया।
सुप्रीम कोर्ट ने 16अक्तूबर 2014 को इस कानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया और इसके द्वारा किए गए सब संशोधनों को हटा दिया। याद करें श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल के समय 42वां संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया गया था। इस संशोधन से इंदिरा गांधी ने अधिनायकवाद की नींव रखते हुए संविधान के अनुच्छेद 74से राष्ट्रपति को प्राप्त शक्तियों को छीन लिया था।
विवाद की जड़ एक शब्द ‘परामर्श’ है जिसका अर्थ निकलने में सर्वाेच्च और कार्यपालिका दोनो ही अनर्थ कर रही है।
संविधान के अनुच्छेद 124 में राष्ट्रपति को सर्वाेच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति मामलों में परामर्श का अधिकार दिया है।
 संविधान में यह सप्ष्ट नहीं है कि क्या राष्ट्रपति जजों के परमर्श को मानने के लिए बाध्य है। संविधान के अनुसार हमारी कार्यपालिका के अध्यक्ष राष्ट्रपति है।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या राष्ट्रपति से दूर होकर सरकार की कोई भूमिका ऐसे मामलो में हो सकती है ? कुछ वर्ष पूर्व का इतिहास देखें तो पाएंगे कि शक्तिशाली प्रधानमंत्री स्वच्छंद रहना चाहता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 74 में भारत के राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल से सलाह लिए जाने के प्रावधान थे परंतु यह स्पष्ट नहीं था कि राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सलाह मानने के लिए बाध्य है या नहीं। श्रीमती गांधी ने संविधान के 42वें संशोधन के द्वारा राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल द्वारा सलाह मानने के लिए बाध्य होने का प्रावधान जोड़ दिया। आज एक तरफ जहां सुप्रीम कोर्ट कार्यपालिका पर न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप का आरोप लगा रही है वहीं दूसरी तरफ सरकार जजों की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट पर भाई भतीजे वाद का आक्षेप लगा रही है। तत्कालीन कानून मंत्री किरण रिजिजू ने 17 जनवरी 2022 को सर्वाेच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति को एक पत्र प्रेषित कर लिखा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता के लिए सुप्रीम कोर्ट की कोलेजियम में केंद्र सरकार और हाईकोर्ट के कोलेजियम में राज्य सरकारों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए। इस पत्र में कानून मंत्री ने यह भी लिखा है कि सरकार कोलेजियम की सिफ़ारिश को आंख मूंद कर स्वीकार नहीं कर सकती। कानून मंत्री जजों की नियुक्ति की वर्तमान कोलेजियम व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट, संसद और सरकार (कार्यपालिका) अपनी लक्ष्मण रेखाएं लांघ रही है। देश के समक्ष एक गंभीर संकट खड़ा है। अब डर इस बात का है कि कहीं अब मोदी सरकार भी सर्वाेच्च न्यायालय पर नियंत्रण करने के लिए संशोधन के रास्ते पर न आ जाएं। 
लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता और नागरिक सुरक्षा मंच के संस्थापक हैं

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