मय्यत में आए अफसर तो बढ़ गया रुतबा, जानिए…कैसे ?

जैनेंद्र कुमार झांब. 

तृतीय श्रेणी कर्मचारी बीमार हुआ। पंद्रह दिन वेंटिलेटर पर रहा, निकल लिया। रिटायरमेंट से दो तीन बरस पहले ही निकल लिया। रोना धोना मचा है, शामियाना लगा है, चाय चल रही है, रिक्शे रुक रहे हैं, रिश्तेदार उतर रहे हैं, विलंबित और द्रुत रुदन चल रहा है, रिश्तों की औकात के अनुसार।
अचानक मुर्दा कर्मचारी चीखा, ‘अबे चुप करो बे’। 

मुर्दा उठ खड़ा हुआ, दरवाजे की ओर लपका, एक कार रुकी, दफ़्तर का प्रथम श्रेणी अधिकारी कार से उतरा, ‘अरे, आप लेटे रहो, मुर्दों में हेरार्की नहीं होती, प्रोटोकॉल से ऊपर उठ चुके आप’।
‘नहीं सर, कृतार्थ हुआ मैं, मेरी मौत पर आप पधारे, मरना सफल हो गया। पता होता कि आप पधारोगे तो मैं वेंटिलेटर बाइपास करके पहले ही मर लेता, सर। वो क्या है कि पिछले बरस बड़े भैया मरे थे, मुन्सिपालिटी में बड़े बाबू थे, एक अधिकारी तक ना आया। बड़ी बुरी मौत रही जी। अंतिम संस्कार तक टकटकी लगाए रहे, भैया, अब आया अधिकारी-अब आया। अबे, उल्लू के पट्ठे, कुर्सी ला, गद्दी वाली, बड़े साहब आए हैं, चाय ताज़ा बनवा लियो।’ 

मुर्दा कर्मचारी पुनः जा लेटा। अब एक आलौकिक तेज था, लाश के चेहरे पर। जैसा सांसदों की लाशों को ही सुलभ है, वैसा। 
शानदार शवयात्रा रही। अफ़सर आया तो पीछे पीछे सारा दफ़्तर भी आया। झक मार कर। मुर्दे के बच्चों को गर्व टाइप होने लगा, मुर्दा बाप पर। 
खैर, तेरहवीं का इश्तेहार जो निकला, उसमें लिखा गया कि जिनकी मय्यत में अमुक अधिकारी आए थे, उनकी तेरहवीं है, ढ़ंग के कपड़े पहन कर आना, चपड़गंजुओं।
लेखक राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक मसलों पर कटाक्ष के लिए विख्यात हैं

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