बच्चों को जीने दीजिए, प्लीज!

एम.एल शर्मा. 

हमारी निक्की तो डॉक्टर ही बनेगी! आयुष को हम एमडी करवाएंगे! सुनिए जी, बाईपास पर अभी जमीन खरीद लीजिए, बाद में बेटे के अस्पताल के काम आएगी। मां-बाप की इन्हीं अनचाही आकांक्षाओं के बीच बचपन की मासूमियत पिसती जा रही है या यूं कहे कि काल कलवित हो रही है। 

 खुद के सपने जो पूरे ना हो सके उन्हें बच्चों पर थोपना कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। शिक्षा नगरी कोटा में विद्यार्थियों की आत्महत्या के दिन ब दिन बढ़ रहे मामले तो कमोबेश यही स्थिति बयां करते हैं।
 अपनी आकांक्षाओं का भार बच्चों के बचपन पर लादना कहां तक उचित है ? नतीजतन, बालमन कुंठाग्रस्त होकर मौत को हमसफर बनाने में गुरेज नहीं कर रहा है। माता-पिता बच्चे के जिस गले में स्टेथोस्कोप देखना चाहते हैं, उस गले को फांसी का फंदा ज्यादा सरल लग रहा है। 

अरे, जो तुम ना बन सके तो प्रथम तो बच्चे से ऐसी अपेक्षा करना ही बेमानी है। जैसी जिसकी अभिरुचि है वैसा ही उसको बनने दीजिए।
देखिए, वह क्या कमाल करता है। अभिभावकों की अपेक्षाओं का कोई अंत नहीं है। इन्हीं बेमानी चाहतों का दुष्परिणाम है कि शिक्षा के लिए विख्यात कोटा आज आत्महत्या के दंश झेलता कुख्यात हो गया है।

 बात इस साल की करें तो अब तक 26 विद्यार्थी आत्महत्या कर चुके हैं जो शिक्षा नगरी के माथे पर बदनुमा दाग ही कहा जा सकता है। हालांकि, सरकार ने हॉस्टल व पीजी के लिए गाइडलाइन बनाई हैं मगर वह कागजों में सिमटी सी ही प्रतीत हो रही है। आप अपनी संतान को उसकी इच्छा के अनुरूप फील्ड में जाने के लिए प्रोत्साहित कीजिए। फिर देखिए उसका कमाल! परमात्मा सबको सद्बुद्धि प्रदान करें।
 (लेखक पेशे से अधिवक्ता हैं)

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