गोपाल झा.
हनुमानगढ़ जंक्शन सब्जी मंडी के ठीक पीछे स्थित है खोसा निवास। सरदार जोरा सिंह खोसा की कोठी। पार्षद कौर सिंह खोसा के पिता हैं सरदार जोरा सिंह। उम्र करीब 91 वर्ष। शरीर से स्वस्थ हैं और पूरी तरह सक्रिय। हां, थोड़ी कम सुनाई देती है लेकिन बातचीत के दौरान सब कुछ समझ जाते हैं। दरअसल, जोरा सिंह हनुमानगढ़ के उन विरले लोगों में हैं जिनकी नजरों के सामने हनुमानगढ़ का विकास हुआ है। भले सियासी लोग 70 साल में कुछ न होने का दावा करें लेकिन यह तो सत्ता संघर्ष के लिए विपक्ष पर आरोप लगाने का जुमला है। देश को छोड़िए, सिर्फ हनुमानगढ़ शहर के विकास को समझना हो तो जोरा सिंह जैसे बुजुर्ग के पास बैठिए। उन्हें तल्लीन होकर सुनिए। यकीनन, समझ में आ जाएगा कि कितना बदल गया है अपना हनुमानगढ। ‘भटनेर पोस्ट’ के साथ बातचीत में जोरा सिंह ने पलटे जिंदगी की किताब के अनगिनते पन्ने। बात 1917 से शुरू हुई जब जोरा सिंह के परदादा सरदार हजारा सिंह हनुमानगढ़ आए थे। फिर पूरा परिवार यहीं का होकर रह गया। वे बताते हैं ‘उस वक्त जंक्शन की आबादी न के बराबर थी। स्टेशन पर जब कोई रेल आती तो कुछ देर के लिए रौनक होती फिर पसर जाता था सन्नाटा। स्टेशन रोड पर महज तीन-चार दुकानें हुआ करती थीं। ईश्वर मोदी स्टेशनरी की दुकान करते थे। पास में था भगवान सिंह का ढाबा। उस वक्त जंक्शन से टाउन आने-जाने के लिए लोग एकमात्र साधन तांगे का उपयोग करते थे। जंक्शन में आबादी नाममात्र की थी। कचहरी, तहसील ऑफिस और एसडीएम का दफ्तर भी टाउन में ही था। घग्घर बहाव क्षेत्र के पास घना जंगल था।’
इस स्कूल से पढ़े थे पूर्व मंत्री
जंक्शन में उस दौर में एकमात्र रेलवे स्कूल की सुविधा थी। जोरा सिंह बताते हैं कि इसी रेलवे स्कूल से बृजप्रकाश गोयल और साहबराम सहू आदि ने पढ़ाई की थी। गोयल बाद में राजस्थान सरकार में मंत्री बने और सहू पुलिस सेवा में एडीशनल एसपी से रिटायर हुए। चिकित्सा सुविधा के नाम पर भी कुछ नहीं था। बस, रेलवे अस्पताल था। उस वक्त चानणराम शर्मा नामी चिकित्सक थे। वे आज की लोकप्रिय स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. तेज शर्मा के पिता थे।
पहले जैसा अपनापन अब कहां
पांच दशक पहले तक लोगों में आपसी भाईचारे की भावना मजबूत रही। जोरा सिंह कहते हैं ‘विभाजन के वक्त हिंसा का तांडव हुआ लेकिन बाद में सब कुछ शांत हो गया। हिंदू-मुस्लिम में एकता की भावना रही। आपसी रिश्ते मजबूत थे। दुःख-सुख में भागीदारी का रिश्ता था। लेकिन जिस तरह आबादी बढ़ती गई, रिश्तों में कड़वाहट आती गई। जाति, धर्म के नाम पर ऐसी जहरीली हवा चली कि हमारी सोच संकुचित होती गई। हम स्वार्थी होते चले गए। समाज का मतलब खत्म सा हो गया।’
बेटी की शादी और व्यवस्था में जुट जाता था गाम
वक्त बदलते देर नहीं लगती। वो भी एक वक्त था जब किसी की बेटी की शादी तय होती तो पूरा गांव बारात की व्यवस्था के लिए जुट जाता था। बारातियों के ठहराने, उसके लिए बिस्तर, मांचा-खाट, नहाने के लिए गर्म पानी की व्यवस्था, दूध, सब्जियां और बाकी जरूरतें गांव वाले पूरी करते। गांव में उत्साह का माहौल रहता। बारात भी कम से कम 3 दिनों तक ठहरती। ज्यादा दिन बारात रूकती तो गांव वाले अपने-अपने घरों में उन्हें भोजन करवाते। बारात जाने के लिए उंट और घोड़ों के अलावा बैलगाड़ी की सुविधा थी। गीतों के माध्यम से सवाल-जवाब होते। गीतों में मजाक किए जाते।
15 रुपए क्विंटल बेचते थे गेहूं
1951 के दौर में गेहूं की उपज कम थी। फिर भी 15 रुपए क्विंटल गेहूं और 10 रुपए क्विंटल चना के भाव थे। उस वक्त खेती भी परंपरागत तरीके से होती। यूरिया और कीटनाशकों का उपयोग बिल्कुल नहीं होता था। बैल या उंट से खेतों की जुताई होती। एक बीघे में 5 से 7 मन गेहूं की पैदावार थी। हनुमानगढ़ में चने और जौ की खेती होती। घग्घर क्षेत्र में सरसों की पैदावार अच्छी थी। बरसात का पानी घग्घर में आता, उसी से सिंचाई होती। लोगों के पास पेशे के नाम पर खेती और पशुपालन ही विकल्प था।
‘अफसरों के प्रति सख्त रहते थे महाराजा गंगा सिंह’
बीकानेर सियासत के महाराजा गंगासिंह का दौर बेहद अच्छा था। सरदार जोरासिंह बताते हैं ‘गंगासिंहजी से मिलना थोड़ा मुश्किल था लेकिन जो उनके पास पेश हो गया तो उसकी फरियाद पूरी होती। वे अफसरों के प्रति सख्त थे। काम नहीं करने वाले अफसरों को दंडित करते थे।’ टैक्स भी परंपरा उस दौर में भी थी। जोरा सिंह के अनुसार, राजा खुद अफसरों के साथ प्रवास पर आते। सेठ-साहूकारों से चंदे के रूप में टैक्स वसूलते। इसमें भी ध्यान रखा जाता कि सेठ की आमदनी से अधिक तो वसूली नहीं की जा रही।