काल्पनिक ‘कबीर’ की कथा!

जैनेंद्र कुमार झांब. 

इस मूढ़ की कल्पना यह है कि आज कबीर हैं और ज़ोरशोर से हैं। इतने इवाल्व्ड भी हैं कि साहित्य की जड़ों में मट्ठा डालकर उसे पुष्पित-पल्लवित कर रहे हैं। कृतघ्न साहित्य जगत झक मार कर कृतार्थ भी हुआ है। यथा- 
लोन उठाए कबीरा, ईएमआई चुकाय 
देखि विहंसत माल्या, फुर्र से उड़ जाय ।। 
कबीरा इन लायब्रेरी, बीइंग पुस्तक डे 
सेल्फियां क्लिका रहे बुक लवर सारे ।। 
पोर्न बिलोके कबीरा, दिल अपना बहलाय 
बाबाजी की कृपा से, पुत्र बहुरिया पाय ।। 
कबीर की बीएमडब्ल्यु दौड़ी जा रही थी। राष्ट्रीय साहित्य महोत्सव में उन्हें लाइफ़ टाइम अवार्ड मिलना निर्धारित हुआ था। अनेक तिकड़मों के फलस्वरूप।
 अचानक कबीर बोले, ‘ड्राइवर, स्टॉप द कार। ये क्या है ?’ 
‘झोपड़ी है सरजी।’
 ‘व्हॉट झोपड़ी मैन ?’
 ‘बॉस, ग़रीबों का घर है जी।’ 
‘ओह, कौन रहता है इधर में ?’
जुलाहा है जी, उल्टे सीधे दोहे लिखता रहता है, दिमाग़ है लेकिन दिमाग़ का लाभ उठाने का दिमाग़ नहीं है, सबसे दुश्मनी पाल रखी।’
 ‘ये जुलाहा क्या होता है ?’ 
‘सर आप वीवर समझ लो जी, उस युग में उसे जुलाहा पुकारते थे जिस युग में वह लटका है, त्रिशंकु की तरह।’
 ‘वीवर दोहे बुनता है ?’
 ‘कपड़ा भी बनाता है, दोहे भी। बड़ा स्वाभिमानी है जी।’ 
‘पुअर गाए, पुट सम मनी इन हिज़ अकाउंट, मूव द कार अहेड, मैन। हमें लिट फेस्ट में भी पहुँचना है, हज़ार पापड़ बेल कर यह शुभ दिन आया है, सूरज, तुलसी; रहीम सब की लाबिंग हमसे पहले फ्रूटफल रही थी।’
 ‘सर, वो लेगा नहीं।’
 ‘फ़ूलिश, इज़न्ट ही ? लिट फेस्ट के भाषण का मसाला मिल गया मुझे तो!’ 
‘सर अगले मोड़ पर परसाई भी हैं, थोड़ा सा डायवर्सन होगा, तीन किलोमीटर फ़ालतू पड़ेगा। मिलना चाहेंगे ?’
 ‘नहीं यार, अब चल ही लो, लाइफ़ टाइम अवार्ड ज़्यादा ज़रूरी है।’ 
लेखक राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक मसलों पर कटाक्ष के लिए जाने जाते हैं

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