“लालची” बन गए नेता और मतदाता भी!

शंकर सोनी.

 निर्वाचन बोले तो मतदान का अधिकार। जिसका उपयोग करके हम जनतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने के लिए जनप्रतिनिधि चुनते हैं। हम ‘भारत के लोग’ जिनमें सर्वाेच्च सत्ता निहित है, अपने द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से अपने लिए ही एक शासन व्यवस्था कायम करते हैं। यही है जनतंत्र का स्वरूप। 
राजस्थान में हम 16 वीं विधानसभा के लिए मतदान करने वाले हैं। अब तक 15 बार चुनाव हो चुके हैं। क्या हमारे विधायक मतदाताओं की कसौटी पर खरे उतरे है? क्या हम अपनी पसंद के विधायक चुन कर भेज रहे हैं? क्या जनतंत्र के मंदिर में बैठे भ्रष्ट, गुंडे, तस्कर, भूमाफिया ही हमारी पंसद के जन प्रतिनिधि है? यह आज का यक्ष प्रश्न है जिस पर गंभीर मंथन की आवश्यकता है। हमारे यहां मतदान के दो आधार है। पहला दल आधारित और दूसरा व्यक्ति आधारित। दल आधारित मतदान का मूल आधार राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव से पूर्व की जाने वाली घोषणाएं होती है, जिन पर विश्वास करके हम मतदान करते है।

राजस्थान की राजनीति में कांग्रेस और भाजपा सत्ता का केंद्र रही हैं। दोनों ही पार्टियां अपनी चुनावी घोषणाओं पर सही नहीं उतरी और चुनावी घोषणा पत्र को दलों ने चुनावी जुमला ठहरा दिया। जिसके कारण आम जनता का दोनो दलों के चुनावी घोषणा पत्रों पर से विश्वास उठ गया तो दलों ने सत्ता प्राप्ति के लिए मतदान को अपने पक्ष में करवाने के लिए जनता को रेवड़ी बांटने की नई राजनीतिक कला को जन्म दिया।

 सर्वाेच्च न्यायालय में एस.सुब्रमण्यम बालाजी बनाम टी.नाडु सरकार एवं अन्य (निर्णय दिनांक 5 जुलाई 2013) के मामले में मतदाताओं को मुफ्त दी जाने वाले उपहारों पर विचार करते हुए यह अवधारणा प्रकट की गई कि यह ‘भ्रष्ट आचरण’ की परिभाषा में तो नहीं आता पर निःशुल्क वस्तु का वितरण काफी हद स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान की जड़ को हिला देता है। इस मामले में निर्वाचन आयोग की तरफ भी शपथपत्र प्रस्तुत कर तर्क दिया गया कि इस संबंध में सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा निर्देश दिए जाते है तो आयोग इनकी पालना सुनिश्चित करना चाहता है। न्यायालय ने आदर्श आचार संहिता के आधार पर चुनाव प्रक्रिया की शुचिता का दायित्व चुनाव आयोग के ही सिर पर रखते हुए विधायिका को इस संबंध एक कानून बनाने की आवश्यकता बताई। 

रेवड़ी बांटने की होड़ से चिंचित होकर भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय ने सर्वाेच्च न्यायालय में एक याचिका प्रस्तुत कर चुनाव से पहले वोटरों को लालच देने के लिए मुफ्त उपहार बांटने यानी रेवड़ी बांटने की घोषणा को रिश्वत बताते हुए कहा और यह भी की राजनीतिक दल सरकारी कोष से मतदाताओं को उपहार देते है। इससे चुनाव स्वतंत्र व निष्पक्ष नहीं रहता। इसलिए मुफ्त उपहार देने की घोषणा करने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द करने की मांग की है।

 निर्वाचन आयोग ने 2015 में राजनीतिक दलों के लिए आचार संहिता जारी की फिर सन 2019 में आयोग ने एक और आचार संहिता जारी करते हुए मतदान से 48 घंटे पहले वाली अवधि में चुनावी घोषणा जारी करने पर रोक लगाई थी। सर्वाेच्च न्यायालय के निर्देशानुसार भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा 4 अक्टूबर को मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को यह नोटिस दिया गया कि यह बताएं कि उन्होंने जो घोषणा की है या रेवड़ी बांटने का संकल्प किया है अगर वो सत्ता में आते हैं तो इन वादों को कैसे पूरा करेंगे। इनकी पूर्ति के लिए धन की व्यवस्था कहां से कैसे होगी। इसके लिए वे कर बढ़ाएंगे या राजस्व आय को बढ़ाएंगे या योजनाओं के लिए अतिरिक्त कर्ज लेंगे या कोई और तरीका अपनाएंगे? इसके लिए चुनाव घोषणा पत्र में एक प्रारूप होगा जिसमें पार्टियों के चुनावी वादें तो होंगे ही, साथ में वे कैसे पूरे होंगे, इसका भी विवरण देना होगा। पार्टियों को बताना होगा की राज्य की वित्तीय सेहत को देखते हुए उन वादों को कैसे पूरा किया जाएगा। चुनाव आयोग का कहना है कि इस तरह की सूचनाएं होने से वोटर राजनीतिक दलों के वादों की तुलना करके सही फैसला कर सकता है। इसे अनिवार्य बनाने के लिए आयोग आदर्श आचार संहिता में जरूरी बदलाव की योजना बना रहा है।

 दूसरी तरफ, केंद्र सरकार पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए इस ‘बड़े चुनावी सुधार’ को कानून का हिस्सा बनाने के लिए जन प्रतिनिधित्व कानून में बदलाव पर विचार कर रही है। चुनावों में काले धन के इस्तेमाल पर रोक के लिए चुनाव आयोग ने हाल ही में कानून मंत्रालय को लिखा था कि जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव होना चाहिए। राजनीतिक पार्टियां जितना दान पाती हैं उसमें नकद 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए। आयोग ने यह भी प्रस्ताव दिया है कि राजनीतिक दलों को 2000 रुपये से अधिक के दान का पूर्ण विवरण बताना चाहिए। चुनावी वादों को लेकर चुनाव आयोग के पत्र पर विपक्षी दलों ने तीखी प्रतिक्रिया दी है।
 मुख्य विपक्षी कांग्रेस ने इसे ‘लोकतंत्र की ताबूत में एक और कील’ करार दिया है।
पार्टी ने कहा है कि अगर इस तरह का नौकरशाही वाला रवैया अपनाया जाता है तो सामाजिक विकास से जुड़ी कोई भी योजना कभी हकीकत का रूप ही नहीं ले पाएंगी।
 कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने कहा, ‘कांग्रेस ने जनहित को हमेशा पार्टी हित से ऊपर रखा है। हम जो कोई भी वादा करते हैं वह हमेशा रिसर्च और संबंधित पक्षों से विचार-विमर्श पर आधारित होता है। चुनाव आयोग ने जिस तरह इस मुद्दे पर यू-टर्न लिया है, वह दिखाता है कि संस्था किसी अदृश्य हाथ के नियंत्रण में है।’ 
पूर्व कानून मंत्री और राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने तो इसे लेकर चुनाव आयोग पर तंज कसा है कि शायद खुद आयोग को ही मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट की जरूरत है। यह विपक्ष को टारगेट करने का एक और तरीका है। आरजेडी सांसद मनोज झा तो पहले भी ‘मुफ्त की रेवड़ी’ जैसे शब्दों के ही इस्तेमाल पर ऐतराज जता चुके हैं।
 अब हम चर्चा करेंगे व्यक्ति आधारित मतदान पर।
निर्दलीय प्रत्याशी और मतदाताओं में एक विश्वास की स्थिति होती है जिस के आधार पर निर्दलीय प्रत्याशी विजयी हो जाता है। ऐसा प्रतिनिधि तुलनात्मक रूप से अपने मतदाताओं के संपर्क में रहता पर यदि सरकार किसी दल की बनती है तो ऐसे निर्दलीय उम्मीदवार अपने मतदाताओं की समस्याओं का हल नहीं करवा पाता। अगर निर्दलीय उम्मीदवार भी रेवड़ी बांट कर बना है तो वह मतदाताओं के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं समझता। राजनीतिक दलों ने मुफ्त उपहार देकर मत प्राप्त करने की नीति से मतदाताओं को भी लालची बना दिया है। राजनीतिक दलों और मतदाताओं दोनो के ही नैतिक स्तर को उठाने की आवश्यकता है।
 (लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता और नागरिक सुरक्षा मंच के संस्थापक हैं)

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