निराला झा. भटनेर पोस्ट डॉट कॉम.
बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश में मनाया जाने वाला लोकपर्व आज पूरी दुनिया में न सिर्फ विख्यात है बल्कि इसे हर जगह मनाया जाने लगा है। जी हां। हम छठ पर्व की बात कर रहे हैं। छठ यानी तिथि के मुताबिक षष्ठी यानी छठवें दिन मनाया जाने वाला त्यौहार। देखा जाए तो यह विशुद्ध रूप से सूर्योपासना है। किसी जाति या धर्म विशेष का नहीं। सूर्य को धर्म के दायरे में समेटना संभव नहीं। भूगोलविद् भले सूर्य को एक ग्रह के तौर पर पहचानते हों लेकिन भारतीय ऋषियों-मुनियों ने सनातन धर्म की बुनियाद ही प्रकृति आधारित रखी थी। आज भी सनातन धर्म की परंपरानुसार पूजन के दौरान हम नवग्रह की पूजा करते हैं। सूर्य को एकमात्र प्रत्यक्ष देवता कहा गया है। यही वजह है कि सूर्योपासना पर आधारित छठ पर्व का महत्व जान दूसरे राज्यों के लोगों ने भी इसे आत्मसात कर लिया है। क्योंकि सूर्यदेव क्षेत्र विशेष नहीं बल्कि समूची सृष्टि के देवता माने जाते हैं। लिहाजा, पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार का यह लोकपर्व अब समूची दुनिया में मनाया जाने लगा है।
नहाय-खाय:
छठ पर्व चार दिवसीय होता है। पहला दिन होता है नहाय-खाय के नाम। इसमें व्रती यानी व्रत करने वाली महिलाएं मन, कर्म और वचन से शुद्धता धारण करती हैं। घर की विशेष सफाई होती है और इसके बाद स्नान होता है और व्रती नव वस्त्र धारण करती हैं।
संदेश: नहाय-खाय का दो टूक संदेश है कि मनुष्य को जीवन में शुद्धता बरतनी चाहिए। स्वच्छता मन, कर्म और वचन की भी होनी चाहिए। खुशहाल जीवन के यही मूलमंत्र हैं।
खरना:
यह दूसरा दिन होता है। इस दिन शाम के वक्त व्रती मिट्टी के बने चूल्हे पर ही गुड़, चावल और दूध से खीर पकाती हैं। पहले नैवेद्य अर्पित करती हैं और फिर भोजन करती हैं। बाद में प्रसाद वितरण होता है। सात्विक भोजन कर वे दो दिवसीय तपस्या के लिए तैयार होती हैं।
संदेश: सेहतमंद रहने के लिए सात्विक भोजन श्रेष्ठकर है।
सायंकालीन अर्ध्य: छठ के तीसरे दिन यानी शाम के वक्त तालाब या नहर में खड़े होकर डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा है। व्रती अपने परिजनों के साथ घाट पर जाती हैं, कुछ देर पानी में खड़े होकर सूर्य की आराधना करती हैं और फिर घर में बने पकवान उन्हें अर्घ्य के रूप में समर्पित करती हैं। खास बात है कि इसमें प्राकृतिक संसाधनों का ही उपयोग किया जाता है। मसलन, मिट्टी और बांस के बने बर्तन। घर में बनने वाले पकवान। मौसमी फल आदि।
संदेश: आमतौर पर रिश्ते मतलबी होने लगे हैं। ताकतवर लोगों के साथ लोग आत्मीयता दिखाने लगे हैं। वक्त बदलते ही मुंह फेरने की परिपाटी चल पड़ी है। डूबते हुए सूर्य की उपासना के पीछे मनोवैज्ञानिक भाव यही है कि विपरीत समय में भी अच्छे और परोपकारी लोगों का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। पूर्वांचल मूल के लोग इस पर्व से यही सीखते हैं। सूर्य से उम्मीद की जाती है कि वे अगली सुबह फिर आएंगे, सृष्टि में व्याप्त अंधेरे को मिटाएंगे।
प्रातःकालीन अर्ध्य: चार दिवसीय महापर्व का समापन होता है। तड़के व्रती अपने परिजनों सहित फिर घाट पर जाती हैं। मेले का सा माहौल होता है। सभी जाति के लोग एक साथ घाट पर एकत्रित होते हैं। एक-दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं। व्रती नहर में खड़े होकर सूर्योदय की प्रतीक्षा करती हैं। आकाश में सूर्य की लालिमा उनमें उम्मीदें जगाती हैं। मन में उल्लास का संचार होता है। प्रातःकालीन अर्घ्य अर्पित करने के साथ ही प्रसाद वितरण का कार्य होता है। घर जाकर व्रती अपना पारणा करती हैं।