गोपाल झा.
विचार यानी थॉट। राजनीति में इसी से दलों की पहचान होती है। परस्पर दलों के बीच जनता को परखने में सहूलियत होती है। इस लिहाज से हनुमानगढ़ जिले में आज भी अपवाद को छोड़कर कांग्रेस का ‘राज’ है। यह स्थिति तब है जब भाजपा बेहद मजबूत स्थिति में मानी जाती है। जिले की पांच विधानसभा सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों की बात करें तो पीलीबंगा विधायक धर्मेंद्र मोची एकमात्र विधायक हैं जिन्हें आप मूल भाजपाई कह सकते हैं। फिर हनुमानगढ़ से भाजपा के पहले विधायक डॉ. रामप्रताप हों या संगरिया के विधायक गुरदीप शाहपीनी। भादरा के पूर्व विधायक संजीव बेनीवाल हों या फिर नोहर के पूर्व विधायक अभिषेक मटोरिया। सब के सब कांग्रेस से आए। यानी मूल कांग्रेसी। यह दीगर बात है कि आज भाजपा इनके बूते फल-फूल रही है।
भाजपा का जिक्र इसलिए कि आज यह पार्टी पूरे 43 साल की हो रही है। जनसंघ का जनता पार्टी में विलय और फिर जनता पार्टी के विघटन के बाद गैर कांग्रेसी राजनीति को आवाज देने के लिए बनी थी भारतीय जनता पार्टी। साल 1980 और अप्रैल महीने की 6 तारीख। उस वक्त हनुमानगढ़ भी श्रीगंगानगर जिले का हिस्सा था। यानी पाकिस्तानी बॉर्डर स्थित श्रीगंगानगर जिला मुख्यालय से हरियाणा बॉर्डर स्थित भादरा की दूरी करीब 200 किमी से भी ज्यादा थी।
संयोग देखिए, भाजपा का जन्म हुआ और उसी साल यानी 1980 में राजस्थान विधानसभा चुनाव। पार्टी ने श्रीगंगानगर जिले की दो सीटों पर उम्मीदवार उतारे। हनुमानग़ढ़ से एडवोकेट रतनलाल नागौरी और श्रीकरणपुर से राजकुमार वाट्स। साल भर पुरानी पार्टी को सफलता मिलने की कोई उम्मीद भी न थी। फिर 1985 में आया अगला चुनाव। हनुमानगढ़ से बीजेपी प्रत्याशी थे प्रेम बंसल। पार्टी ने हनुमानगढ़ सीट पर 1990 में जातीय समीकरण में तब्दीली करते हुए चंद्रभान अरोड़ा को उम्मीदवार बनाया। चूंकि दो दफा उम्मीदवार वैश्य समाज से थे, इसलिए डबलीराठान के सरपंच रहे चंद्रभान अरोड़ा को मैदान में उतारकर भाजपा ने मतदाताओं को विकल्प दिया लेकिन सफलता नहीं मिली। लेकिन श्रीगंगानगर जिले की 11 सीटों के लिहाज से यह चुनाव बेहद उत्साहजनक था। श्रीकरणपुर से भाजपा प्रत्याशी के तौर पर कुंदनलाल मिगलानी चुनाव जीत गए थे। पूरे जिले में हर्ष का माहौल था। जिले में बीजेपी ने खाता खोल लिया था।
साल 1993 का चुनाव भाजपा के लिए और भी खास रहा। हनुमानगढ़ से बीजेपी उम्मीदवार थे डॉ. रामप्रताप। वे कांग्रेस छोड़कर अपने लिए राजनीतिक जमीन तैयार कर रहे थे। निर्दलीय चुनाव लड़े लेकिन सफलता नहीं मिली। ऐसे में भाजपा को उनमें संभावना दिखी और डॉ. रामप्रताप को भाजपा में अपना भविष्य नजर आया। दोनों एक हो गए। टिकट मिला और चुनाव जीत गए। इस चुनाव में भाजपा को श्रीगंगानगर जिले में तीन सीटें मिलीं। पीलीबंगा से रामप्रताप कासनियां और सूरतगढ़ से अमरचंद मिढ़ा भी चुनाव जीतने वालों में थे।
नोहर, भादरा और संगरिया की सियासी जमीन भाजपा के लिए कभी उपजाउ नहीं रही। भादरा सीट पर खाता खोलने में भाजपा को काफी इंतजार करना पड़ा। पहली बार 2013 में जब बीजेपी ने कांग्रेस से विधायक रहे संजीव बेनीवाल को टिकट दिया तो कहीं जाकर उसे सफलता मिली। हां, नोहर से 2003 में ही बहादुर सिंह गोदार ने पार्टी का खाता खोल दिया था। इसी साल गुरजंट सिंह बराड़ ने संगरिया में भाजपा को सफलता दिलाई।
देखा जाए तो मौजूदा हनुमानगढ़ जिले की पांचों में से हनुमानगढ़ एकमात्र ऐसी सीट थी जहां पर जनसंघ का थोड़ा-बहुत सियासी माहौल रहा। इसकी वजह थी पंजाब के अबोहर-फाजिल्का क्षेत्र से आए लोगों का जनसंघ में विश्वास होना। भले वे जनसंघ के समर्पित कार्यकर्ता रोशनलाल प्रभाकर हों या डॉ. पृथ्वीराज छाबड़ा, डॉ. देशराज, एडवोकेट बृजनारायण चमड़िया या फिर रतनलाल नागौरी आदि। उन लोगों ने यहां पर जनसंघ और बाद में भाजपा के लिए माहौल बनाया। कहना न होगा, ये सब के सब नींव के पत्थर बनकर ही रह गए। पार्टी ने कभी ऐसे समर्पित नेताओं की तलाश और उनकी सुध लेने की कोशिश नहीं की। शायद इसलिए कि उसे अब पार्टी का कुनबा बढ़ाने के लिए कांग्रेस मूल के अनुभवी नेताओं की जमात मिल चुकी थी।
पूर्व पार्षद प्रेम बंसल कहते हैं,‘ उस वक्त पार्टी विचारधारा को फैलाना कठिन था। क्योंकि कांग्रेस और माकपा का बोलबाला था। लोग उनके खिलाफ सुनना पसंद नहीं करते थे।’
कुछ भी हो, भाजपा केंद्रीय नेतृत्व भले देश को ‘कांग्रेस मुक्त’ करने का दावा कर रहे हों लेकिन यह सच है कि जब तक भाजपा में कांग्रेस मूल के नेता फलते-फूलते रहेंगे, ‘कांग्रेस मुक्त’ का विचार सिर्फ नारा बनकर रह जाएगा, हां भाजपा धीरे-धीरे ‘कांग्रेसयुक्त’ जरूर हो जाएगी। बेहतर होता, पार्टी उन समर्पित कार्यकर्ताओं की भी सुध लेती जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भाजपा को मजबूत करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। पार्टी के स्थापना दिवस पर भाजपा के नीति निर्धारकों को आत्ममंथन तो करना ही चाहिए। यही स्थापना दिवस की सार्थकता होगी। बेशक।