यूथ को टटोलिए, बहुत कुछ समझ में आएगा

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गोपाल झा.
21 वीं सदी का युवा उमंगों से भरा है। व्यापक दृष्टिकोण से परिपूर्ण है। वक्त से कोसों दूर आगे चलने के लिए तैयार है। उत्साह से लबरेज है। वह अपनी मेहतन के बल पर मंजिल हासिल करने को बेताब है। लेकिन निराश है। पूछिए क्यों ? जवाब आएगा ‘सिस्टम’।
भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप’ ने ‘यूथ डायलॉग’ की शुरुआत की। मकसद इतना भर था कि आखिर यूथ के मन में क्या चल रहा है, उसे जानने का प्रयास। अच्छा लगा, जब महसूस हुआ कि युवाओं के मन में सिर्फ शिक्षा और कॅरिअर को लेकर बेचैनी नहीं है। उनके मन में बिखरते परिवार और समाज के विघटन को लेकर चिंताएं भी हैं। वे गौरवशाली संस्कृति का पतन होते देख विचलित भी हैं।
पेशे से अधिवक्ता अभिषेक शर्मा हों या यूथ पॉलिटिक्स में पहचान रखने वाले महेंद्र शर्मा। भटनेर किंग्स क्लब यूथ विंग के आशीष गौतम हों या युवा सरपंच रोहित स्वामी। सामाजिक कार्यकर्ता पारस गर्ग, सद्दाम हुसैन, हिमांक बंसल या फिर रोहित जावा। और भी कई युवाओं से बातचीत हुई। सबके पास अपना विजन। खराब सिस्टम को लेकर चिंताएं।
बाकी ठीक है। लेकिन जब कोई युवा यह कहे कि भागमभाग के दौर में एक पिता को अपने पुत्र के लिए समय नहीं है। पिता-पुत्र के बीच संवादहीनता की स्थिति है। देखा जाए तो इस समस्या के लिए आप किसे जिम्मेदार ठहराएंगे ? दरअसल, सरकारी सिस्टम के गड़बड़ाने के लिए हम सब हुक्मरानों का जिम्मेदार ठहराते हैं, अनुचित भी नहीं। लेकिन निजी समस्याओं के लिए खुद को जिम्मेदार ठहराने में कहां दिक्कत है।
अमूमन, हम देखते हैं कि अभिभावक अपने बच्चों को बेहतर बनाने के लिए तत्परता दिखाते हैं। बच्चों को नामचीन संस्थान में दाखिला दिलाने, मोटी फीस भरने से लेकर बच्चे की हर सुविधा का ध्यान रखते हैं। लेकिन उनके पास बच्चों के साथ गुजारने के लिए समय नहीं। बाहरी दुनिया ‘भयावह’ होती जा रही है। जाहिर है, आंच तो सब पर आएगी, आ भी रही है। लेकिन तकलीफ से उबारने के लिए कोई नहीं। लिहाजा, युवा एकाकी हो जाता है। अवसाद में चला जाता है। फिर उसे वापस पटरी पर लाना कठिन हो जाता है।
अभिभावकों को सोचना होगा, आखिर सुबह से देर रात तक वे क्यों व्यस्त रहते हैं ? आखिर किसके लिए ? परिवार व बच्चों के लिए न! तो फिर वे बच्चों को समय क्यों नहीं देते। नियमित रूप से संवाद क्यों नहीं करते?
भले हम किसी भी पेशे से हों। व्यस्ततम समय में से कुछ वक्त नियमित रूप से परिवार के लिए निकालना ही होगा। बच्चों से वार्तालाप करनी ही होगी। तभी तो वे अपनी उलझनें साझा कर पाएंगे। तभी तो समय रहते उसका निराकरण हो पाएगा। अभिभावक से बड़ा शुभचिंतक और दोस्त कोई होता है क्या ? नहीं न ? तो फिर देर किस बात की। शुरुआत कीजिए। युवाओं को टटोलना शुरू कर दीजिए। यकीन मानिए, बहुत कुछ समझ में आएगा। अगर भरोसा नहीं है तो फिर पहल करके देखिए। प्लीज।

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