मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन से सीखिए 10 मूलमंत्र, जानिए…. क्या ?

भटनेर पोस्ट डेस्क.
श्रीराम का जीवन आदर्शों की ऐसी अमर गाथा है, जो युगों-युगों से मानवता को दिशा देता आया है। उन्होंने अपने हर आचरण से यह सिद्ध किया कि धर्म, मर्यादा, सेवा और करुणा ही जीवन के मूल स्तंभ हैं। चाहे पुत्र के रूप में पितृभक्ति हो या राजा के रूप में न्यायप्रियता, श्रीराम का हर निर्णय प्रेरणादायक है। आज के भौतिकतावादी युग में उनके आदर्श एक प्रकाशस्तंभ की तरह हमें नैतिकता और कर्तव्यबोध की ओर ले जाते हैं। रामत्व को आत्मसात करना ही जीवन को सफल बनाना है।

पितृभक्ति और आज्ञाकारिता: श्रीराम ने पिता दशरथ के वचन को निभाने के लिए राजपाट छोड़कर 14 वर्षों का वनवास सहर्ष स्वीकार किया। उनकी आज्ञा पालन की भावना हमें सिखाती है कि माता-पिता की सेवा और सम्मान जीवन का सर्वाेच्च धर्म है।
धैर्य और सहनशीलता: वनवास के दौरान कठिन परिस्थितियों में भी श्रीराम ने धैर्य और संयम का परिचय दिया। हर संकट का सामना धैर्यपूर्वक करना और आत्मसंयम बनाए रखना जीवन की बड़ी सीख है।


मर्यादा का पालन: श्रीराम ने जीवनभर अपने कर्तव्यों और मर्यादाओं का पालन किया। चाहे भाई, पुत्र, पति, मित्र या राजा का धर्म हो, उन्होंने हर भूमिका में मर्यादाओं को निभाया। यह सिखाता है कि हर स्थिति में धर्म और मर्यादा का पालन करना चाहिए।
सच्चा मित्र और सहयोगी: श्रीराम ने मित्रता में निष्काम भाव रखा। उन्होंने सुग्रीव और विभीषण जैसे मित्रों को हर परिस्थिति में साथ दिया। यह प्रेरणा देता है कि मित्रता में विश्वास और सहयोग का होना आवश्यक है।


कर्तव्यपरायणता और न्यायप्रियता: अयोध्या लौटकर श्रीराम ने राजा के रूप में न्याय और कर्तव्य को सर्वाेपरि माना। उन्होंने जनता की भावनाओं का सम्मान करते हुए व्यक्तिगत जीवन की कीमत पर भी लोकमर्यादा का पालन किया।
त्याग और सेवा की भावना: राजा होकर भी उन्होंने स्वयं को सेवक माना। वनवास और राज्य दोनों में उन्होंने त्याग और सेवा का उदाहरण प्रस्तुत किया। यह सिखाता है कि नेतृत्व का असली धर्म सेवा और समर्पण में है।
स्त्री सम्मान और नारी रक्षा: श्रीराम ने सीता जी की रक्षा और सम्मान के लिए रावण से युद्ध किया। उनके जीवन से यह प्रेरणा मिलती है कि महिलाओं का सम्मान और सुरक्षा समाज का कर्तव्य है।


संतों और विद्वानों का सम्मान: श्रीराम ने ऋषि-मुनियों, संतों और गुरुओं का सदैव आदर किया और उनसे ज्ञान प्राप्त किया। इससे हमें ज्ञानियों का सम्मान और मार्गदर्शन स्वीकार करने की प्रेरणा मिलती है।
शत्रु के प्रति करुणा और क्षमा: श्रीराम ने रावण का वध करने के बाद भी उसे सम्मान दिया और विभीषण को लंका का राजा बनाकर धर्म की स्थापना की। उन्होंने क्षमा और दया का परिचय दिया, जो सिखाता है कि शत्रु पर विजय के बाद भी अहंकार नहीं होना चाहिए।
समानता और न्याय का व्यवहार: श्रीराम ने वानर, भालू, निषादराज और विभीषण जैसे सभी जाति-वर्गों को गले लगाकर समरसता का संदेश दिया। यह दिखाता है कि सभी मनुष्यों को समान दृष्टि से देखना ही सच्चा धर्म है।

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