गोपाल झा.
लोकतंत्र के मंदिर में ‘आसन’ के ‘आहत’ होने को आप क्या कहेंगे ? जी हां। सवाल दिलचस्प है और जरूरी भी। भले लोकसभा हो या राज्यसभा अथवा मरुप्रदेश की विधानसभा। तीनों ही जगह ‘आसन’ सहज नहीं। आसन पर आसीन शख्सियत का मन स्थिर नहीं। तीनों ही विचलित नजर आ रहे। आखिर, इस अस्थिरता के मायने क्या हैं ? जरा गौर फरमाइए। ‘उच्च सदन’ में तो ‘आसन’ ने एक सेलीब्रेटी पर टिप्पणी कर ‘आफत’ को आमंत्रित कर लिया। ‘आसन’ ने ‘माननीया’ को सिनेमाई संस्कृति पर ‘ज्ञान’ दिया और खुद को ‘डायरेक्टर’ करार दिया। हंगामा तो होना ही था। जाहिर है, इस तरह की टीका-टिप्पणियों पर ‘माननीय’ तो चुप रहने से रहे। लिहाजा, सदन अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करना पड़ा। अब ‘निम्न सदन’ को लेकर तो कहना ही क्या? नाम का ही ‘निम्न’ है। ‘उच्च स्तर’ की बहस की उम्मीद ही व्यर्थ। आलम यह है कि विपक्ष ‘आसन’ के साथ रोजाना ‘खेलता’ रहता है। सरेआम उनकी ‘निष्ठा’ पर अंगुली उठा देता है। कई दफा उनकी ‘बेचारगी’ सत्तापक्ष को भी बेचैन कर देती है। इधर, गुलाबीनगरी का सदन भी ‘मर्यादित’ न रहा। विपक्ष के एक ‘माननीय’ को ‘गुप्त इशारे’ की आड़ में बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। सवाल यह है कि जिस सदन में चप्पे-चप्पे पर तीसरी आंख का पहरा हो, वहां पर कुछ भी ‘गुप्त’ कैसे रह सकता है? ‘माननीय’ स्तब्ध हैं। उनकी चुनौती जाहिर है। बकौल ‘माननीय’-‘अगर गलत इशारे का प्रमाण मिल जाए तो मैं राजनीति को अलविदा कहने में देर नहीं करूंगा।’ सत्तापक्ष के साथ ‘आसन’ भी ‘गुप्त इशारे’ का प्रमाण खोजने में व्यस्त हैं ताकि एक युवा ‘माननीय’ का ‘हिसाब’ किया जा सके। सवाल यह कि कोई इशारा ‘गुप्त’ होता है क्या ? इशारा तो इशारा है। मतलब, कुछ भी? वैसे इस प्रकरण के बाद ‘आसन’ की ‘प्रधानसेवक’ से खास मुलाकात का गहरा अर्थ बताया जा रहा है। असलियत क्या है, राम जाने!
सरकार की नींद में खलल डालेंगे निर्दलीय!
राजस्थान के छह विधायक राजधानी के एक पंचसितारा होटल में मिले, बैठे और साथ में भोजन भी किया। मॉडर्न पॉलिटिकल लैंग्वेज में इसे ‘लंच मीटिंग’ कहते हैं। ‘लंच मीटिंग’ में शिरकत करने वाले छह के छह निर्दलीय हैं। यानी फिलहाल उनका अपना कोई दल नहीं है। तो क्या उन्हें किसी ‘दल’ की तलाश है ? वैसे इस तरह के मसलों को सिर्फ कयास ही कहा जाएगा। क्योंकि अंदर की बात बाहर नहीं आई है या यूं कहिए आने से रोका गया है। इसका प्रमाण है कि लंच के दौरान छह विधायकों के अलावा कोई मौजूद नहीं था। वैसे भी सियासतदानों के साथ दो-चार सहयोगी तो होते ही हैं लेकिन ‘गुप्त’ मीटिंग में कोई न था। सियासी गलियारे में इस ‘लंच मीटिंग’ की चर्चा लाजिमी है। माना जा रहा है कि निर्दलीयों ने सरकार की नींद में खलल डालने का मन बना लिया है। सदन में भी इनके जलवे देखे जा चुके हैं तो क्या अब सदन के बाहर कोई रणनीति बनी है? चर्चा है कि इस मीटिंग के सूत्रधार थे ‘महारानी’ के पूर्व सिपहसालार जो बेटिकट विधायक बने हैं। ‘महारानी’ ने कुछ दिन पहले पार्टी मुख्यालय पर अपने तेवर दिखाए और उसके बाद उनके सिपहसालार ने मोर्चा संभाला है। मतलब साफ है। आने वाले दिनों में सूबे की सियासत में चर्चाओं का बाजार गर्म रहेगा। है न ?
ब्यूरोक्रेट्स बनाम सियासतदान
आपसे कोई पूछे कि सरकार की वास्तविक बागडोर किसके हाथ में होती है ? सियासतदान या ब्यूरोक्रेट्स ? यकीनन आपका जवाब होगा ब्यूरोक्रेट्स। दरअसल, सच्चाई यही है। यह दीगर बात है कि बाहरी तौर पर सियासतदान सर्वोपरि होने का ‘ढोंग’ करते हैं। दूसरे अर्थों में कहिए तो सरकार का दिल तो सियासतदानों के साथ रहता है और दिमाग ब्यूरोक्रेट्स के पास। तभी तो कहा जाता है कि सत्ता का चरित्र एक जैसा होता है। क्योंकि सरकार की दलीय निष्ठा बदलती रहती है लेकिन नीयत यथावत। राज्य की मौजूदा सरकार भी अपवाद नहीं है। आठ माह में बदलाव के नाम पर क्या महसूस हुआ ? महज योजनाओं के नाम बदले। पूर्ववर्ती सरकार के फैसलों के ‘रिव्यू’ करने की बात हुई। बाकी सब कुछ वैसा ही। वजह सिर्फ यह कि ‘रिव्यू’ करने वाले वही हैं जिन्होंने नीतियां बनाई थीं। खैर। ‘फूल वाली पार्टी’ के भीतर अफसरों को लेकर खुसर-फुसर शुरू हो गई है। समूचे राज्य में ‘अफसरशाही’ की गूंज सुनाई देने लगी है। जाहिर है, जनप्रतिनिधियों और कार्यकर्ताओं को ‘संतुष्ट’ करने के लिए ब्यूरोक्रेट्स में व्यापक बदलाव की पटकथा लिखी जा चुकी है। जल्दी ही प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी इधर से उधर होंगे। जाने वाले जाएंगे लेकिन आने वाले भी जाने वालों की तरह होंगे तो फिर बदलाव का क्या मतलब है ? सच तो पूछिए तो यह बदलाव भी महज दिखावा है। अच्छा काम करने वालों को प्रोत्साहन मिले और गलत काम करने वालों को प्रताड़ना तो ही सुधार की गुंजाइश है। वरना ब्यूरोक्रेट्स बनाम सियासतदान का ‘खेल’ तो बरसों से चल रहा है, चलता रहेगा। नहीं क्या ?
कमाल हैं दौसा वाले बाबा!
‘फूल वाली पार्टी’ के सीनियर लीडर हैं दौसा वाले बाबा। जी हां। आपने ठीक समझा। बात डॉ. किरोड़ीलाल मीणा की हो रही है। आदिवासी दिवस पर सरेआम मंच से ‘बाबा’ ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तारीफ में कसीदे गढ़े। खुल्लमखुल्ला कह दिया कि वंचित दलितों और पिछड़ों को आरक्षण का लाभ इसलिए नहीं मिल रहा क्योंकि इन्हीं वर्गों से ताल्लुक रखने वाले लोग उच्च पदों पर कुंडली मारकर बैठे हैं। वे वंचित लोगों को सत्ता के शीर्ष के आसपास फटकने ही नहीं देते। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने ‘क्रीमीलेयर’ लागू करने की बात कही जो स्वागतयोग्य है। उधर, सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर मोदी सरकार ने ‘असहमति’ जताते हुए ‘क्रीमीलेयर’ लागू न करने का निर्णय किया है लेकिन इसके बावजूद दौसा वाले बाबा की दहाड़ काबिलेतारीफ है। सच तो यह है कि ‘क्रीमीलेयर’ लागू होने से गैरआरक्षित लोगों को कोई लाभ नहीं है लेकिन आरक्षित वर्ग के वंचितों को तो आगे बढ़ने का रास्ता मिल ही जाएगा। यही तो आरक्षण का मूल मकसद है। लेकिन वोटों की फसल काटने वालों को सच्चाई से क्या वास्ता। उन्हें तो सत्ता चाहिए, सुख भोगने के लिए। भले वह झूठ दर झूठ के रास्ते से मिल जाए। खैर। ‘क्रीमीलेयर’ का हश्र कुछ भी हो, डॉ. किरोड़ीलाल मीणा की साफगोई सबको पसंद आ रही है। तभी तो सब कहते हैं, कमाल के हैं दौसा वाले बाबा!