



वेदव्यास.
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अमर वाणी-‘यत्र नारी पूजन्ते, तत्र रमन्ते देवता‘ आपने-हमने अनेक बार सुनी-पढ़ी हैं, लेकिन फिर भी पिछले 5 हजार वर्ष की पौराणिक संस्कृति ये सवाल कोई हल क्यों नहीं कर पा रहा है कि 21वीं शताब्दी के अर्धसभ्य 140 करोड़ देशवासियों की इंद्रसभा में महिलाएं हीं आज तक सबसे अधिक पीड़ित और प्रताड़ित क्यों हैं। अभी हाल भारत सरकार का राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो भी हमें अपनी सालाना रपट में बता रहा है कि अमृतकाल में भी सबसे अधिक अत्याचार और अपराध महिलाओं, बच्चों और दलितों पर हुए हैं और देश के सभी राज्यों में उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान सबसे आगे हैं तथा देश के 19 बड़े शहरों में से दिल्ली सबसे आगे हैं। किंतु अपराध रहित एक भी राज्य नहीं है।
हम आंकड़ों के जंगल में नहीं भटक कर भारतीय समाज के उस पाखंड को जानना चाहते हैं कि वो क्यों और किस तरह की अपराधी मानसिकता का शताब्दियों से शिकार हैं जो त्रेतायुग में भी सीता माता की अग्नि परीक्षा लेता है तो द्रापर युग में भी द्रोपदी का ही चीर हरण करवाता है। भगवान राम और भगवान कृष्ण के होते हुए भी यदि तब की नारी अपमानित थी तो आज के कलयुग में फिर राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के खुलासे से किस सरकार का दिल पसीजने वाला है?

इस तरह देश की महिलाओं, बच्चों और दलितों का अपराधिक उत्पीड़न हम आजादी आने और भारत के गणतंत्र बनने के बाद से हर वर्ष सुन-पढ़ रहे हैं लेकिन मंगल ग्रह पर जाने वाला हमारा समाज आज भी महिला, बच्चे और दलित विरोधी हिंसा के कुंए से बाहर नहीं निकल पा रहा है। भाग्यवाद, कर्मवाद, भक्तिवाद और राष्ट्रवाद में भरोसा करने वाले सभी पापी, धर्मात्मा तथा ज्ञानी-अज्ञानी मेंढक-इस अपराध के नरक में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका बनकर चाक-चौबंद हैं फिर भी केवल 3 प्रतिशत अपराधों में ही न्याय दण्ड मिल रहा है। कानून अपना काम कर रहा है तो महिला, बच्चे और दलित अपना दुख भोग रहे हैं।
महिला-बच्चे और दलित उत्पीड़न की ये बहस इतनी पुरानी है कि जैसे-जैसे शिक्षा, विज्ञान और विकास के दायरे बढ़ रहे हैं वैसे-वैसे ये सच्चाई भी उजागर हो रही है कि भारत का शहरी सभ्य समाज इन अपराधों में अधिक कुशल है जबकि गांवों में व्याप्त हिंसा को तो कोई पुलिस थाना दर्ज ही नहीं करता है और लोकलाज के राष्ट्रवादी घूंघट में कोई महिला पास-पड़ौस को भी कुछ नहीं बताती है। क्योंकि फिर समाज का दण्ड तो उसे सात पीढ़ियों तक भुगतना पड़ता है। आश्चर्य ये है कि पीड़ित महिला को तो हम कलंकित कहकर दुतकारते हैं लेकिन अपरधी को बरी करवाने में जाति-धर्म की पूरी ताकत लगा देते हैं। भला बत्तीस दांतों के बीच में फंसी जीभ को पुलिस, अदालत और पंचायत कहां-कहां बचाएगी?

महिलाओं, बच्चों और दलितों के खिलाफ आज बढ़ते अपराध एक नया समाजशास्त्र ये बताता है कि जो निर्बल है उस पर ही सबसे ज्यादा अत्याचार हो रहे हैं। जो किसी भी रूप में शक्तिशाली है वो सबसे अधिक कमजोर का ही शोषण कर रहा है। हमारे राष्ट्रवाद में आज महिलाएं, बच्चे और दलित ही सबसे अधिक सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक रूप से असहाय, अनाथ और विकल्पहीन हैं और इनमें भी महिलाएं ही (भले ही वे किसी भी जाति-धर्म की हों) सबसे ज्यादा उत्पीड़ित तथा अपमानित हैं। क्योंकि पूरा राष्ट्रवाद-पुरुष प्रधान है, निर्णायक है और घर धणी है। जब पति ही परमेश्वर होगा तो फिर एक महिला के पास सात फेरे और परम्परा की मर्यादा के अलावा कौन रक्षक है?

भारत के समाज का ये सामाजिक-आर्थिक चक्रव्यूह इतना पौराणिक और किलेबंदी वाला है कि हर महिला दुर्गा, भवानी, चामुण्डा और करणी माता बनकर भी पुरुष अपराध का शिकार है तथा सती होना और जौहर करना ही उसका अंतिम हथियार है। महिला की अस्मिता, पवित्रता और सम्मान की रक्षा का ये खेल हजारों साल से जारी है फिर भी बाल विवाह, दहेज प्रथा, नाता प्रथा, चुडै़ल, डायन, सती और यौन उत्पीड़न का अपराध एकमाता और बहन ही झेल रही है क्योंकि मरकर ही मोक्ष मिलने की हमारी संस्कृति है।
हम महिलाओं, बच्चों और दलितों को साम्राज्यवाद, सामंतवाद, समाजवाद और लोकतंत्र के हर पाठ्यक्रम में पढ़कर भी ये मानसिकता ही बनाए हुए हैं कि औरत ही हमारी जागीर है तो और औरत ही हमारी तकदीर है। इसलिए स्त्री की कोई जाति-धर्म नहीं होता और स्त्री केवल स्त्री होती है और वही ‘वीर भोग्य वसुंधरा‘ कहलाती है। महिलाओं के लोकतंत्र में महिषासुर कभी मरता ही नहीं है और स्त्री युगों-युगों से पुरुषों की नामी-बेनामी सम्पत्ति ही मानी जा रही है।

हमने अहिल्या को शापित भी देखा है तो मीरां को जहर का प्याला भी पिलाया है तो इंदिरा गांधी की शहादत भी की है और आज भी हमारी ये स्थिति है कि महिला और बाल विकास मंत्रालय हमारा सबसे महत्वहीन विभाग है तो दलितों को डॉ. अंबेडकर की कोई प्रार्थना और संविधान भी सामाजिक आर्थिक न्याय नहीं दिला पा रहा है। आज भी लिंगानुपात में महिलाएं कम हैं और आज भी देश की महिला साक्षरता बहुत कम हैं तो आज भी ग्रामसभा से लेकर लोकसभा तक में महिलाओं की कोई निर्णायक भागीदारी नहीं है। महिलाओं का वर्तमान हजारों साल बाद भी राष्ट्रवाद और बाजारवाद की चक्की में पिस रहा है और लालकिला निरंतर बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के लिए ‘नए भारत‘ को ललकार रहा है।
ऐसे में हमें ये लगता है कि भारत के 9 लाख गांवों में महिलाओं, बच्चों और दलितों पर हो रहे अपराधों को अब प्राथमिकता से रोकना होगा क्योंकि हम महिला शिक्षा और सशक्तिकरण की जगह शौचालय और देवालय पर अधिक जोर दे रहे हैं और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पुराणकथा को ही 21वीं शताब्दी का विकासवाद बना रहे हैं। इसलिए मन और मानसिकता को बदलिए क्योंकि महिलाओं की असुरक्षा और अपमान बनाए रखकर हम एक शक्तिशाली और सभ्य भारत कभी नहीं बना पाएंगे। अतः कभी नारी की पूजा करके आप अब अपने अपराधों का तो प्रायश्चित करिये?
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं)
