हे सरकार, कुछ तो शर्म करो!

एमएल शर्मा.
जब देश का संविधान निर्मित हो रहा था तब अभिव्यक्ति की आजादी, बोलने का अधिकार संवैधानिक अधिकार बनाया गया था। संविधान निर्माता की सोच से इतर इस स्वतंत्रता को ‘दासता’ में बदलने की जिद आखिर क्यों? क्या यह उचित है?
कहते हैं पत्रकार समाज का आईना होते हैं। वह समाज में व्याप्त कुरीति, जनसमस्या, भ्रष्टाचार, सरकार की गलत नीतियां जैसे मुद्दे मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित करते हैं, अथवा अपने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रदर्शित करते हैं। जिससे सरकार एवं प्रशासन के आला अधिकारी तुरंत संज्ञान लेकर कार्रवाई करते हुए समस्या का निदान करते हैं। पर यहां मामला कुछ अलग है, लीक से हटकर है। ऐसा मुद्दा उठाना ‘माननीयों’ की नजरों में देशद्रोह है। एक आजाद मुल्क में ऐसी पाबंदियां समझ से बिल्कुल परे हैं। एक विद्वान, बुद्धिमत इंसान के जहन में यह सवाल चक्करघिन्नी की तरह घूम रहा है कि क्या हम वास्तव में स्वतंत्र है? और स्वतंत्रता में श्वास ले रहे हैं? अपनी बात कह पा रहे हैं?
वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम ने बिहार चुनाव के मद्देनजर कवरेज की। मतदाता सूचियों पर सवाल उठाए, पत्रकार की वाहावाही के स्थान पर, या मतदाता सूचियां दुरुस्त करने की जगह पत्रकार अजीत अंजुम के विरुद्ध अभियोग पंजीबद्ध कर उन्हें ‘प्राथमिकी’ के सम्मान से नवाजा गया। ठीक इसी इसी प्रकार राजस्थान के एकमात्र हिल स्टेशन माउंट आबू के पत्रकार के साथ हुआ। उसने नगरपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार की परते क्या उघाड़ी, इनाम यह मिला कि खबरनवीस नगरपालिका परिसर में खून से सरोबार मिला। यह लोकतंत्र, अगर इसे ही गुलामी से निजात के समय प्रजातंत्र कहा गया था तो नहीं चाहिए हमें ऐसा प्रजातंत्र। हमारे लिए गुलामी ही उचित है। अंग्रेजी हुकूमत भी उतनी निरंकुश नहीं बनी जितनी मौजूदा सरकारी बन रही है। सत्ता की ‘जी हुजूरी’ करने वाले कभी भी पत्रकार हो ही नहीं सकते। हुक्मरानों का गुणगान करने वाले कभी भी समाज को उचित मार्ग नहीं दिखा सकते। लेकिन यह बेचारे भी करें, क्योंकि सत्ताधीशों का गुणगान करना उनकी फितरत बन चुकी है। अब ऐसे मीडिया समूह पनप चुके है जो सरकार के एजेंट बन चुके है। यही विडंबना है कि आखिर सोने की चिड़िया कहलाने वाला अपना वतन किस दिशा में जा रहा है। ऐसी हिटलरशाही आजादी के 8 दशकों में कभी नहीं दिखाई दी। इनकी माने तो अब वही जिएगा जो सरकार के भजन करेगा। विरोधी की जुबान काट दी जाएगी। संक्रमण काल है।


भाइयों. अब भी अगर नहीं संभले तो आपको भगवान भी संभलने का मौका प्रदान नहीं करेगा। क्योंकि व्यक्ति जब अपनी विरोध करने की फितरत को स्वत ही समाप्त कर लेता है तब वह समाज में क्रांति कभी नहीं ला सकता। मौजूदा दौर में हालात ऐसे हैं कि यदि कोई पत्रकार भूलचूक कर सरकार के खिलाफ केवल सच ही लिख दे तो उसे वाहवाही तो दूर, जेल से बचना भी दुश्वार हो जाता है।
इसमें कोई दो राय नहीं की भाजपा के गुणगान करने वालों की संख्या लोकतंत्र के अनुसार पूर्ण से भी अधिक है। लेकिन क्या यह गुणगान मन से किया जा रहा है, या डर से? प्रश्नयही है। चुनाव जीतने के सैकड़ो हथकंडे होते हैं शायद। इन्हीं का प्रयोग हो रहा है। जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी तो उन्होंने विपक्ष को मजबूत करने के लिए दो सदस्यों को संसद सदस्यता प्रदान की थी ताकि एक मजबूत विपक्ष से उन्हें खुद की कमियां पता चले। पर मौजूद दौर में क्या कभी ऐसा हुआ है? विख्यात पत्रकार रवीश कुमार ने एक दफा कहा था कि ष्एक डरा हुआ पत्रकार समाज में मरा हुआ नागरिक पैदा करता हैष्। वास्तव में यह बात पूर्णतया शत प्रतिशत सत्य कथन है। यदि समाज का आईना ही कमजोर होगा, धुंधला होगा, तो अक्स खुद ब खुद धुंधला ही होगा। हमें चाहिए कि हम आईने पर जमी धूल की परतों को साफ कर एक सशक्त नागरिक होने का धर्म निभाएं व आने वाली पीढ़ी को एक ताजगी से परिपूर्ण, विकासवर्धक,लोकतांत्रिक परंपरा प्रदान करें।
सबको सद्बुद्धि दे भगवान!
-लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता व समसामयकि मसलों पर स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

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