


गोपाल झा.
देश के हर त्योहार का एक अर्थ है, एक संदेश है, एक दर्शन है। लेकिन अगर बात छठ की हो, तो यह सिर्फ एक पर्व नहीं, बल्कि प्रकृति से रिश्ते को याद दिलाने का मौका है। छठ कहता है, प्रकृति से जुड़ो, उसे महसूस करो, क्योंकि वही असली है, वही शाश्वत है, वही सनातन है। बाकी सब क्षणिक है।
छठ में सब कुछ प्राकृतिक है। मिट्टी के चूल्हे पर प्रसाद बनता है, बांस की ‘सूप’ और ‘कोनिया’ में पूजा होती है। गुड़ की खीर बनती है, न कि चीनी की। केले, गन्ने, नारियल और मौसमी फल, जो भी धरती सहज रूप में देती है, वही पूजा का हिस्सा बनते हैं। छठ की सबसे सुंदर बात यह है कि पूजा किसी आलीशान मंदिर में नहीं, बल्कि नहर, तालाब या नदी किनारे होती है, जहां लोग घुटने तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं। यानी जल और सूर्य दोनों ही इस पर्व के केंद्र में हैं।

अगर ठहरकर सोचें, तो यही पांच तत्व-मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश हमारे जीवन का आधार हैं। इन्हीं से हमारा शरीर बना है और इन्हीं में एक दिन विलीन भी हो जाना है। छठ इन्हीं तत्वों की महिमा का स्मरण कराता है। हमारे पूर्वजों ने जब ये पर्व बनाए थे, तब उनके पीछे केवल परंपरा नहीं, बल्कि गहरी समझ थी। उनके पास विज्ञान था, तर्क था और जीवन को सहज बनाने की बुद्धि थी। लेकिन वक्त के साथ हमने उस सरलता पर आधुनिकता की परत चढ़ा दी। अब पर्व भी दिखावे में घिरने लगे हैं। जहां सादगी थी, वहां अब शोर है।

छठ इस मायने में सबसे सच्चा त्योहार है क्योंकि इसमें कोई बनावट नहीं। यह सिखाता है कि जीवन में सुख पाने के लिए किसी चकाचौंध की जरूरत नहीं, बस प्रकृति के करीब रहना ही काफी है। मिट्टी की खुशबू, गुड़ की मिठास, नदी की ठंडक और उगते सूर्य की लालिमा में जो सुकून है, वह किसी एसी कमरे या चमकदार दुनिया में कहां?

आज हम सब भौतिक सुखों की दौड़ में हैं। बड़े-बड़े मकान, महंगे कपड़े, विदेशी चीज़ें, इन सबमें हमने अपनी खुशी खोजने की कोशिश की है, पर वो मिली नहीं। क्योंकि आनंद बाहर नहीं, भीतर है। और भीतर तभी मिलेगा, जब हम बाहर प्रकृति से जुड़े होंगे। छठ इसी का संदेश देता है, सरल रहो, सच्चे रहो, और प्रकृति के साथ तालमेल में रहो।

इस पर्व की एक और खूबसूरती है, यह हमें सिखाता है कि जीवन में सिर्फ उगते सूरज को नहीं, डूबते सूरज को भी प्रणाम करना चाहिए। जब सब कुछ अच्छा चल रहा हो, तब साथ देना आसान होता है, पर असली इंसान वो है जो बुरे वक्त में भी साथ निभाए। पूर्वांचल की संस्कृति इस भावना को छठ के जरिए जीती है। डूबते सूर्य को अर्घ्य देना दरअसल उम्मीद का प्रतीक है, कि आज सूरज डूबा है, पर कल फिर निकलेगा, और अपनी रोशनी से सब कुछ रोशन कर देगा। यही तो जीवन का असली अर्थ है, आशा कभी नहीं मरती।

भारत की पहचान हमेशा उसकी जीवनशैली से रही है। हमने दुनिया को सिखाया कि कैसे प्रकृति के साथ जीना है, कैसे त्याग में सुख है और सादगी में शांति। लेकिन अफसोस, हमने खुद ही उसे भुला दिया। अब हम पाश्चात्य ढांचे में आनंद ढूंढ़ रहे हैं। पर ये आनंद टिकता नहीं। शरीर और मन तभी स्वस्थ रहेंगे जब जीवन का तालमेल प्रकृति से बना रहेगा।

छठ इस संतुलन का उत्सव है। यह बताता है कि जीवन का असली सुख बाहरी नहीं, भीतर की शुद्धता में है। जब मन स्वच्छ होगा, तन स्वस्थ होगा, तो जीवन अपने आप आनंदमय होगा। तो इस छठ पर बस एक संकल्प लीजिए। प्रकृति से जुड़ने का, उसे महसूस करने का, उसके साथ जीने का। थोड़ा वक्त मिट्टी को दीजिए, सूरज की किरणों को दीजिए, प्राकृतिक हवा को महसूस कीजिए। फिर देखिए, जीवन में कितनी सहजता और शांति उतर आती है।
छठ सिर्फ एक पूजा नहीं, यह एक जीवन-दर्शन है, जो कहता है, ‘जो प्राकृतिक है, वही असली है।’ बाकी सब क्षणिक है। बस जरूरत है, उसे समझने की। क्या आप तैयार हैं प्रकृति से फिर से रिश्ता जोड़ने के लिए?
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं





