सेना के मनोबल के साथ विश्वासघात!

गोपाल झा.
कभी-कभी इतिहास अचानक करवट लेता है। सब कुछ इतना शांत, सामान्य और सुव्यवस्थित लगता है कि लगता है जैसे राष्ट्र किसी गहरे निद्रावस्था में है। लेकिन जब आंखें खुलती हैं तो सामने एक ऐसा दृश्य होता है जो न केवल चौंकाता है बल्कि भीतर तक झकझोर देता है। भारत-पाकिस्तान के संबंधों में एक बार फिर एक ऐसा ही क्षण आया, जिसमें सीजफायर की घोषणा तो हुई, परंतु उसके पीछे की भूमिका और वक्तव्य ने भारतीय आत्मगौरव को गंभीर प्रश्नों के कटघरे में ला खड़ा किया।
अमेरिका की वर्षों पुरानी इच्छा रही है कि वह भारत-पाक मसले में मध्यस्थता करे। लेकिन भारत का रुख सदा स्पष्ट रहा, ‘हम तीसरे पक्ष की मध्यस्थता नहीं स्वीकारते।’ यह न सिर्फ हमारी विदेश नीति का मूलभूत सिद्धांत रहा, बल्कि यह हमारी संप्रभुता का सम्मान भी था। किंतु अचानक ऐसा क्या हुआ कि यह सिद्धांत, यह संकल्प और यह स्वाभिमान ठिठक गया, झुक गया, और अमेरिका के एक ट्वीट के आगे मौन हो गया?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को ‘माई डियर फ्रेंड’ कहकर संबोधित किया, वह दोस्ती का आलिंगन इतना प्रबल कैसे हो गया कि उसने भारत की सैन्य रणनीति और राजनीतिक गरिमा को ही विस्मृत कर दिया? राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का यह दावा कि उन्होंने भारत-पाक को व्यापार बंद करने की धमकी दी और इसी के फलस्वरूप सीजफायर पर सहमति बनी, क्या यह स्वीकार्य है? क्या यह भारतीय आत्मगौरव को ठेस पहुंचाने वाला वक्तव्य नहीं?
इतिहास साक्षी है, जब 1998 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिका की चेतावनियों और प्रतिबंधों की परवाह किए बिना पोखरण में परमाणु परीक्षण कर वैश्विक मंच पर भारत की शक्ति का परिचय दिया था। तब किसी ने ‘छाती की नाप’ नहीं बताई थी, लेकिन देश ने उन्हें साहस का प्रतीक माना। और आज? आज 56 इंच की बात करने वाले नायक की भूमिका में एक ऐसा मौन साधा गया है जो रहस्यमयी है और चिंताजनक भी।
जब देश टीवी के सामने बैठकर प्रधानमंत्री की मुखारविंद से कोई स्पष्ट, निर्णायक वक्तव्य सुनना चाहता था, तो उसे मिला एक ‘कहानीनुमा’ भाषण। न उसमें ट्रंप का जिक्र था, न सीजफायर के कारणों का कोई उत्तर। यह चुप्पी एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए घातक संकेत है। क्योंकि मौन, जब सत्ता से उपजता है, तब वह केवल शब्दों की अनुपस्थिति नहीं होती, बल्कि वह जवाबदेही से पलायन की घोषणा होती है।
भारतीय सेना ने सीमा पर शौर्य का प्रदर्शन किया, पाकिस्तानी सैन्य ठिकानों को ध्वस्त किया, शत्रु को उसकी औकात दिखाई, लेकिन ठीक उसी समय एक विदेशी राष्ट्रपति का दावा कि भारत ने उनके दबाव में आकर संघर्षविराम किया, यह सैनिकों के शौर्य पर परोक्ष आघात है। क्या यह सेना के मनोबल के साथ विश्वासघात नहीं है?
सवाल यह नहीं कि सीजफायर क्यों हुआ। सवाल यह है कि वह कैसे और किसके दबाव में हुआ। यदि ट्रंप की बातों में सत्य का अंश भी है तो फिर यह चिंता का विषय नहीं, चेतावनी है, कि देश की विदेश नीति, सैन्य नीति और आंतरिक निर्णय एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गए हैं जहां संप्रभुता को वैश्विक समीकरणों के नीचे कुचला जा सकता है।
कठोर शब्दों में कहें तो यह वही स्थिति है जब सत्ता में बैठे लोगों के लिए ‘राजनीतिक लाभ’ और ‘अंतरराष्ट्रीय मंच पर साख’ अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, और ‘राष्ट्रीय स्वाभिमान’ और ‘जनता का विश्वास’ गौण। जब सत्ता का मूलभूत मूल्य ‘सेवा’ से हटकर ‘छवि निर्माण’ बन जाए, तो वहां निर्णय साहस से नहीं, रणनीतिक चातुर्य से नहीं, बल्कि निजी लाभ और अंतरराष्ट्रीय सहमति से लिए जाते हैं।
यह लेख किसी एक व्यक्ति, किसी एक दल या किसी एक घटना की आलोचना मात्र नहीं है। यह एक पुकार है, उस भारतीय आत्मा से, जो कभी ‘भारत माता की जय’ कहते हुए रणभूमि में हंसते-हंसते वीरगति को प्राप्त होती है, और कभी संविधान की रक्षा के लिए सवाल पूछने का साहस करती है। यह पुकार है उस जागरूक नागरिक से जो जानता है कि मौन कभी-कभी स्वीकृति होता है, और आज यदि हमने चुप्पी साधी, तो कल सवाल पूछने का अधिकार भी छिन जाएगा।
सच्चे भारतीयों के लिए यह वक्त है जागने का। यह वक्त है अपने नेताओं से उत्तर मांगने का। यह वक्त है यह कहने का कि राष्ट्र की अस्मिता किसी ‘डील’ या ‘ट्वीट’ का विषय नहीं है। यह वक्त है यह स्मरण करने का कि देश किसी नेता की छवि से नहीं, बल्कि उसकी नीति, नीयत और निडरता से चलता है।
भारतीय सेना को सलाम, जो आज भी हर मौसम, हर मोर्चे पर अपना लहू बहाकर भारत की सीमाएं सुरक्षित रखती है। उन शहीदों को कोटिश श्रद्धांजलि जो इस देश के गौरव के लिए बलिदान हुए। और उन निर्दाेष नागरिकों के प्रति संवेदना, जो युद्ध की आंच में झुलस गए, परलोक सिधार गए।
लेकिन सबसे अधिक यह समय है आत्मनिरीक्षण का। क्योंकि जब सत्ता मौन हो जाए, तब जनता की आवाज़ ही राष्ट्र की असली चेतना बनती है। और जब चेतना जाग जाए, तब इतिहास करवट लेता है। सवाल पूछिए। जवाब मांगिए। क्योंकि देश सर्वाेपरि है और यही वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं

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