कॉमरेड शोपत सिंह : संघर्ष और ईमानदारी का पर्याय

एडवोकेट नवरंग चौधरी. 

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भटनेर पोस्ट : गेस्ट रायटर
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कामरेड
शोपत सिंह मक्कासर की आज पुण्यतिथि है। 26 मार्च 2006 को उनका निधन हुआ था। शोपत सिंह संयोग से राजनीति में आये थे। हनुमानगढ़ के पास मक्कासर गांव के धनी किसान और इलाके के जाने-माने चौधरी हरीराम गोदारा के घर जन्म लिया। चौधरी साब इलाके में कांग्रेस विरोध की राजनीति की धुरी थे। 1952 में चौधरी हरीराम ने हनुमानगढ़ विधान सभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था, पराजित हो गए। 1957 के विधान सभा चुनाव आए तो चौधरी हरिराम के घर मक्कासर में इलाके के लोगों की एक बड़ी मीटिंग हुई। उसमें तय हुआ कि चौधरी आत्माराम कांग्रेस के उम्मीदवार रामचंद्र चौधरी के खिलाफ निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे। कांग्रेस का एक छत्र राज था। चौधरी आत्माराम ने एन मौके पर चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया। कोई उम्मीदवार तैयार नहीं हुआ। शोपत सिंह ने चुपचाप बिना किसी को बताये पर्चा दाखिल कर दिया और एक तरह से हारी हुई बाजी के मोहरे बन गए। पर संयोग ऐसे बनते गए, शोपत सिंह बतौर निर्दलीय भारी मतों से चुनाव जीत गए। छोटी उम्र में विधायक बन गए। इस इलाके में कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ कार्यकर्त्ता होते थे, कोई बड़ी संगठित शक्ति नहीं थी। कामरेड योगेंद्र नाथ हांडा, दौलत रामजी, सम्पूर्ण सिंह जी, चघड़ सिंह जी, हेतराम जी बेनीवाल आदि ने शोपत सिंह जी पूरी मदद की। ये सब ही मीटिंगों में भाषण देते थे। शोपत सिंह जी को भाषण देना भी नही आता था। इन्ही सब को देखकर उन्होंने मार्क्सवाद पढ़ा, सीखा और अपने जीवन का लक्ष्य तय कर लिया। इस तरह कम्युनिस्ट बन गए। इसके बाद कहीं मुड़ कर नहीं देखा। भाषण जब देना सुरु किया तो बेमिसाल वक्ता बन गए।

इस तरह वे चार बार विधायक और एक बार सांसद लाल झंडा उठाकर ही बने। उनके पिताजी भी जनता पार्टी से सांसद रहे। दोनों पिता पुत्र राजनीति में थे, पर विचाधारा का कोई मेल नहीं। ईमानदारी, कर्मठता, समर्पण ,क़ुरबानी और सिद्धान्तवादी राजनीति में इनकी कोई सानी नहीं। ता जिंदगी वामपंथी राजनीति में घरफूंक तमाशा देखते रहे। इलाके में हर जन आन्दोलन में अग्रणी रहे। कोई प्रलोभन, कोई जुल्म उन्हें अपने उसूलों से डिगा नहीं सके।
1962 में शोपत सिंह हनुमानगढ़ से एमएलए थे। चीन के साथ युद्ध के बाद तत्कालीन सरकार ने कम्युनिस्टो को चीन का एजेंट कहकर जेलों में डाल दिया। देश में बड़ा संकट था। चौधरी हरिराम ने नेहरू जी को बुलाकर हनुमानगढ़ में सोने से तोला। और रक्षा कोष में दान किया। नेहरू जी चौधरी साब से बड़े प्रभावित हुए। सुखाड़िया जी मुख्यमंत्री थे। जनसभा में नेहरू जी ने पूछा यहाँ का एमएलए कौन है, तो सुखाड़िया जी ने बताया चौधरी साब का बेटा है। नेहरू जी तपाक से बोले, :सुखाड़िया जी! क्या करते हो इनके बेटे को मंत्री बनाओ।’ सुखाड़िया जी तो कुछ बोल ही नहीं पाए। चौधरी साब ने सारा वृतांत नेहरु जी को बताया। बोले, ‘वो मंत्री नहीं बनेगा, ना तो आपकी मानेगा ना अपने बाप की।’ ऐसे ही एक मौका और आया 1967 में। कांग्रेस विरोधी लहर थी। शोपत सिंह के चुनाव लड़ने पर एक चुनाव याचिका में 6 साल चुनाव लड़ने पर रोक लग गयी। इलाके के लोग मक्कासर में इक्कठे हुए। चौधरी हरी राम जी को चुनाव में उम्मीदवार तय कर दिया। शोपत सिंह बोले, ‘मेरे से उम्मीद मत रखना। मैं तो मेरी पार्टी का फैसला मानूंगा।’ बाद में हेतराम बेनीवाल ने चुनाव लड़ा। हरीराम जी ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया। यदि लड़ते तो जीत निश्चित थी।
सादगी,संघर्ष, कुर्बानियों का जिक्र करें तो पूरी एक किताब भी कम पड़ जाए। इनके परिवार व जनता से जुड़ाव को तो संकट में ही लोगो ने परखा है। चाहे अकाल हों, देश की रक्षा का सवाल हो, पशुधन को बचाना हो। अवसरवादी राजनीति के इस दौर में ऐसे महान् लोगों की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। पार्टी का अनुशासन क्या होता है इनसे ही सीखा जा सकता है। कपड़ों की तरह पार्टियां बदलने वाले क्या सिखाएंगे।
इस इलाके में कोई जनसंघर्ष हो तो लोग लड़ते हुए शोपत सिंह को जरूर याद करते हैं। चाहे भाखड़ा, गंग कैनाल के किसान हों, घड़साना-रावला के हों या अभी एटा सिंगरासर का आंदोलन हो। सब इनसे प्रेरणा लेते हैं। लिखने को बहुत है, पुण्यतिथि पर नमन, लाल सलाम। शायद इनके रास्ते पर कुछ कदम ईमानदारी से चल पाएं।
लेखक बार कौंसिल ऑफ राजस्थान के चेयरमैन रहे हैं

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