गोपाल झा.
राइट टू हेल्थ। हर आदमी को स्वास्थ्य का अधिकार। विधानसभा में बिल पारित हो गया। सदन में हर किसी के चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे। आम जनता बागोबाग। अब उसे जरूरत पड़ने पर बड़ी राहत मिल जाएगी। गहलोत सरकार के प्रति कृतज्ञता के भाव। लेकिन दूसरी तरफ डॉक्टरों में गजब की बेचैनी। जैसे सरकार ने उन पर तकलीफों का पहाड़ तोड़ दिया हो। चहुंओर त्राहि-त्राहि। डॉक्टरों ने बिल पारित होते ही विरोध का अंतिम तरीका अपनाया। हड़ताल। मरीजों से दूरी। लोग बेमौत मर रहे, तो अपनी बला से। सरकार को फिक्र्र है न डॉक्टरों को। बेबस है जनता। कौन सुने पुकार ?
राज्य में ‘मेडिकल इमरजेंसी’ जैसे हालात हैं। सरकारी तंत्र सुस्त है और बेफिक्र भी। डॉक्टर्स भी संवेदनहीन हो चुके हैं जैसे। सरकार का विरोध करना है, कीजिए। यह लोकतांत्रिक हक है। लेकिन मरीजों का उपचार तो कीजिए। उसे राहत दिलाने का प्रयास तो कीजिए। विरोध का एकमात्र यही तरीका तो नहीं ? हड़ताल तो आज नहीं कल खत्म होगी। किसी को तो झुकना ही पड़ेगा। लेकिन इस ‘मूंछ के सवाल’ में नुकसान किसका हो रहा ? यकीनन, मरीजों और डॉक्टर्स का। सबसे बड़ा नुकसान डॉक्टरों और मरीजों के संबंधों में पनप चुकी ‘खटास’ का है। वैसे भी बहुत सारे ऐसे डॉक्टर्स हैं जो मरीज को अपना ‘प्रोडक्ट’ मानते हैं। संवेदनहीन हो चुके हैं। लेकिन यह भी सच है कि कुछ ऐसे भी डॉक्टर्स हैं जो मरीज को उपभोक्ता नहीं मानते। उनका उपचार करना अपना दायित्व समझते हैं। मनमानी फीस वसूल नहीं करते। संवेदनाओं का सागर उमड़ता है उनके दिल में। ऐसा भी नहीं कि वे इस स्वभाव के कारण बाकी से पिछड़ रहे हैं, भूखों मर रहे हैं, आधुनिक सुख सुविधाओं से वंचित हैं। उनके पास सब कुछ है। सबसे बड़ी बात कि वे पब्लिक की नजर में ‘राजा’ हैं, ‘धरती के भगवान’ हैं। जरा सोचिए, जिन मरीजों की आज उपेक्षा हो रही है, अगर वह जिंदा बच जाए तो फिर वे डॉक्टर उससे नजर कैसे मिला पाएंगे, जिसका उपचार करने से उन्होंने मना कर दिया था ? डॉक्टर्स और मरीज के बीच तो विश्वास का रिश्ता है। कोई सरकारी बिल उसमें बाधक कैसे बन सकता है ?
सरकार को भी चाहिए कि जिस तरह ‘राइट टू हेल्थ’ बिल लाकर संवेदनशीलता का परिचय दिया है, अब उसे लागू करने से पहले डॉक्टर्स को विश्वास में ले। क्योंकि सरकार की मंशा के अनुरूप इसे लागू करने की बड़ी जिम्मेदारी डॉक्टर्स की ही है। अगर बिल को लेकर डॉक्टर्स को कोई दुविधा है तो उसे दूर करना सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है। इस तरह 11 दिन हड़ताल में निकल जाएं और सरकारी तंत्र और डॉक्टर्स प्रतिनिधि टेबल टॉक के जरिए कोई रास्ता न निकाल पाएं तो इसे दोनों पक्षों की विफलता ही मानी जाएगी। जनता की परेशानी को ध्यान में रखते हुए दोनों पक्षों को अपनी निष्ठा दिखाने का समय है। छोटे-मोटे लाभ के लिए विरोध ठीक नहीं। दोनों पक्षों को समझना होगा कि आखिर में उन्हें जनता के बीच ही जाना पड़ेगा। कहीं ऐसा न हो कि यह बात समझने में देर हो जाए। देरी भी गलती की श्रेणी में आती है। जैसा कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का स्लोगन रहा है, ‘हर गलती कीमत मांगती है’ तो यह बात सरकार और डॉक्टर्स के लिए भी लागू होती है। बहरहाल, किसी को सार्थक पहल तो करनी ही चाहिए। याद रहे, जन हित में झुकने वाले को पब्लिक गले लगाएगी। इसमें दो राय नहीं।