




डॉ. एमपी शर्मा.
मानव जीवन का सबसे बड़ा संघर्ष अक्सर ‘करूं या न करूं?’ के बीच होता है। जीवन में हम ऐसे मोड़ों पर बार-बार पहुंचते हैं जहाँ एक नहीं, कई रास्ते हमारे सामने होते हैं। हर रास्ता अपने साथ संभावनाओं और आशंकाओं का गठबंधन लेकर आता है। और यहीं से शुरू होता है निर्णय का द्वंद्व। जब सोचने, परखने और तुलना करने की प्रक्रिया इतनी लंबी हो जाए कि हम किसी निष्कर्ष तक पहुंच ही न सकें, तो इस स्थिति को एनालिसिस पैरालेसिस कहा जाता है यानी सोचते-सोचते निर्णय की शक्ति शून्य हो जाना।
दरअसल, यह स्थिति आज के दौर में और भी आम हो गई है क्योंकि अब हमारे पास पहले से कहीं अधिक विकल्प हैं। आप मोबाइल खरीदना चाहें, करियर चुनना हो, जीवनसाथी का चयन करना हो या बच्चे के स्कूल का कृ हर निर्णय के सामने ढेरों विकल्प खड़े मिलते हैं। जितने ज्यादा विकल्प, उतना ही उलझाव और अंततः अनिर्णय की स्थिति।

अनिर्णय क्यों होता है? इसके पीछे कई कारण होते हैं। एक तो विकल्पों की अधिकता। जब चुनने को बहुत कुछ होता है तो अक्सर हम कुछ भी नहीं चुन पाते। दूसरा, विफलता का डर। यानी अगर यह गलत निर्णय निकला तो? यह डर मन को जकड़ लेता है। तीसरा है, आत्मविश्वास की कमी। अपने ही निर्णय पर भरोसा न होना, परिपक्वता की कमी को दर्शाता है। चौथी, सबको खुश रखने की आदत। दूसरों की सोच या अपेक्षाओं के दबाव में हम खुद की प्राथमिकता भूल जाते हैं। इसके अलावा, परफेक्ट विकल्प की तलाश कभी खत्म नहीं होती। पहले के गलत फैसलों की स्मृति मन में डर बो देती है।
अनिर्णय के परिणाम क्या होते हैं?
समय और अवसर की हानि, मानसिक तनाव और बेचैनी, आत्मग्लानि और असंतोष, आत्मविश्वास में गिरावट व जीवन में ठहराव। सोचिए, एक किसान जो बारिश के मौसम में यह तय न कर पाए कि कौन-सा बीज बोना है, वो कभी फसल उगा पाएगा? बिल्कुल नहीं। उसी तरह जीवन में फैसले न लेना भी एक असफलता ही है।

तो क्या करें? निर्णय लेना कैसे सीखें?
निर्णय लेना कोई जन्मजात प्रतिभा नहीं, यह एक सीखी जा सकने वाली कला है। इसके लिए कुछ व्यावहारिक उपाय अपनाए जा सकते हैं। हर विकल्प के फायदे-नुकसान को एक कागज़ पर लिखें। लिखित मूल्यांकन से भ्रम घटता है। अगर कोई विकल्प 80 फीसद तक सही लगता है, तो उस पर आगे बढ़ें। परफेक्शन की प्रतीक्षा अंतहीन हो सकती है। निर्णय को अनिश्चितकाल तक न खींचें। खुद को तय समय दीजिए, एक दिन, एक सप्ताह और उस भीतर निर्णय लें। जब दिमाग चकरा जाए, तो दिल से पूछिए। ‘गट फीलिंग’ कई बार सटीक होती है। रोज़मर्रा के छोटे फैसले लें कृ क्या पहनना है, क्या खाना है, किससे बात करनी है। ये छोटे निर्णय आत्मबल को मजबूत करते हैं। मानसिक स्पष्टता लाने में ध्यान, प्राणायाम और योग अत्यंत उपयोगी हैं। ये आत्मनिरीक्षण को सरल बनाते हैं और भीतर की आवाज़ को स्पष्ट करते हैं।
निर्णय में कठोरता और उचितता का संतुलन
कई बार सही निर्णय कठोर होते हैं। वे किसी को नाराज़ कर सकते हैं, आलोचना का कारण बन सकते हैं। लेकिन यदि वह निर्णय आत्मा की शांति और तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है, तो उसमें देर नहीं करनी चाहिए। किसी के कहने पर, सामाजिक दबाव में या भावनाओं के उबाल में निर्णय को टालना या बदलना आत्म-विश्वास की हत्या है।
जीवन ठहराव से नहीं, प्रवाह से सुंदर बनता है। निर्णय लेना जीवन जीने की पहली शर्त है। याद रखें, गलत निर्णय लेने से बेहतर है कोई निर्णय लेना, क्योंकि ठहराव भी एक प्रकार की हार है। और सबसे बड़ी बात, आप निर्णय लेते हैं, लेकिन अंततः वही निर्णय आपको आकार देते हैं। इसलिए निर्णय लेने से मत डरिए। साहस कीजिए, भरोसा रखिए और आगे बढ़िए। यही जीवन का सार है।
-लेखक सामाजिक चिंतक और पेशे से कुशल सर्जन होने के साथ इंडियन मेडिकल एसोसिएशन राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं



