राजस्थान में साहित्य जगत की तो महिमा ही न्यारी है। यहां लेखक, समाज की जगह अपने घर की चिंता करता है। यहां लेखक मनुष्य मात्र के लिए नहीं केवल अपने लिए प्राण न्योछावर करता है। साहित्य पढ़ने की उसे आदत नहीं है। समकालीन साहित्य की लघुपत्रिकाएं मंगवाकर पढ़ने का उसका उत्साह नहीं है। आजकल वह महानगर में प्रेस क्लब में अपनी कविता के नायक को ढूंढ़ रहा है। बहुत बेचैन है लेखक। उसे अब किसी पर भरोसा नहीं है। कोई बाहर का लेखक कभी किसी सभा-व्याख्यान में आता है तो वह भी भागता-भागता मुंह दिखाई कर जाता है।
अब लेखक का आधा समय दफ्तर की नौकरी में और बाकी का समय तेरी मेरी विवेचना करने में बीत जाता है। उसकी दिन में एक बार किसी अखबार के संपादक से मिलने की इच्छा जरूर होती है लेकिन अपने किसी लेखक साथी से मिलने का मन बहुत कम करता है। इस लेखक को दूरदर्शन पर कार्यक्रम देखना अच्छा लगता है। उसे आकाशवाणी के निमंत्रण से भी खुशी होती है। वह सारे काम करता है पर पढ़ने को पुस्तकें नहीं खरीदता। यदि कोई साथी प्रेम से अपनी पुस्तक उसे भेंट कर दे तो वह उसे पढ़ता नहीं है। वह हमेशा प्रदेश के बाहर जो कुछ घटित हो रहा है उसे ही साहित्य मानता है। उसे आत्मप्रचार में बहुत मजा आता है। उसे व्यंग्य और विनोद की भाषा अच्छी नहीं लगती। वह हमेशा यारों का यार की तरह अपने हम प्याले और हम नवाले की कविता/कहानी को ही उल्लेखनीय मानता है। उसकी दुनिया भी कुएं के मेंढक की तरह है और उसे अच्छी रचना पढ़कर किसी लेखक को कोई पत्र लिखने की कोई इच्छा ही नहीं करती।
वह लेखक परिवार के शादी-ब्याह में भी नहीं जाता और किसी लेखक के लिए किराया भाड़ा खर्च करके अपना शहर नहीं छोड़ता। अब यहां लेखक या तो किसी सभा/सम्मेलन में मिलते हैं या फिर रेडियो और दूरदर्शन की साझा रिकाॅर्डिंग में दिखाई देते हैं। यहां करीब सभी लेखकों के घर पर दफ्तर में फोन लगे हुए हैं लेकिन आपस में बातचीत करना एक सामाजिक अपराध माना जाता है। और क्या हाल है? इससे आगे उनका कोई संवाद ही नहीं बढ़ता। यहां लेखक की अकड़ भी इतनी है कि उसे आलोचना-समालोचना बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होती। वह किसी लेखक की मौत पर नहीं जाकर उसके तीये की बैठक में जाना पसंद करता है। वह प्रकाशक की दुकान पर तो रोज चक्कर लगाएगा लेकिन किसी दूसरे लेखक के घर पर कभी नहीं जाएगा।
इस लेखक को विचारधारा से बंधन महसूस होता है। इसे विचार में सुविधा के रास्ते बंद हो जाने का खतरा दिखता है। यह सरकार और व्यवस्था के चरित्र पर बहस और निर्णय नहीं करता। लेखक की यह दुनिया इतनी छोटी है कि पुस्तक का लोकार्पण करवाने का भी इसका एक नुस्खा है। एक मंत्री, एक संपादक और एक आयोजकीय प्रकाशक। आप कभी किसी लोकार्पण में जाकर देखें तो पता चलेगा कि जिस पुस्तक को लेकर जलसा है उस पुस्तक का लेखक ही मंच पर सबसे बाद में बुलाया जाता है और माला भी सबसे बाद में उसे पहनाई जाती है।
वह लेखक अखबार में अपने नाम छापने को ही आज का सबसे बड़ा सुख मानता है। संपादक और पत्रकार इसीलिए उसे एक लेखक से ज्यादा प्रिय है। यह लेखक परिवार भी भारत की तरह विविधता में एकता का आदर्श उदाहरण है। यहां कविवर किसी कहानीकार को नहीं पढ़ते। निबंधकार किसी उपन्यास में हाथ नहीं डालते। लघुकथाकार और बाल साहित्य के लेखक को तो यहां चिराग लेकर ढूंढ़ने पर ही मिलते हैं। महिला-लेखिकाओं की यहां अपनी अलग ही चौपाल जुड़ती है। यदा-कदा में सभी का सृजन और साक्षात्कार सिमटा हुआ है और रही सही कसर दैनिक अखबारों के रंगीन परिशिष्टों ने पूरी कर दी है। मांग और पूर्ति का जबरर्दस्त माहौल चल रहा है। अब कविता से अधिक कहानी के और कहानी से अधिक किसी खरबूजे-तरबूजे के फीचर पर लिखकर अधिक कमाया जा सकता है।
लेखक की पवित्रता अब इसके बावजूद भी खंडित होने को तैयार है कि अधिकांश समाचार पत्रों में साहित्य का विशेष महत्व नहीं है तथा रेडियो- दूरदर्शन पर गिरोहबंदी के बिना माल की खपत नहीं है। लघुपत्रिकाओं में व्यापक प्रचार-प्रसार और पारिश्रमिक नहीं मिलता इसलिए भी लेखक इनसे कतराता है। बहरहाल लेखकों का एक बहुत बड़ा वर्ग अब दैनिक समाचार पत्रों के परिशिष्टों की उपभोक्ता सामग्री बन गया है। गीतकार नई कविता के अखाड़ों से परेशान रहे हैं। अब छंद और मुक्तछंद में भी कवि बंटे हुए हैं। इसी तरह लेखकों के अन्य भी कई विभाजन है। जिसकी दाल जिस पानी में अच्छी गलती है वह उस रसाईघर का बखान करता रहता है। किसी को दूरदर्शन वाले, किसी को आकाशवाणी वाले, किसी को अकादमी वाले तो किसी को अखबारी संपादक मार्गदर्शन देते हैं। विचारधारा वाले संगठनों के पास अब कोई नहीं जाता क्योंकि उनके पास पत्रिका/प्रकाशन/पुरस्कार/आयोजन और एकल कार्यक्रमों की सुविधाएं नहीं हैं। राजस्थान की तो यह भी एक विशेषता है कि यहां संस्था गतिविधियों को भारी अकाल है। जो बड़ी-बहुत संस्थाएं हैं तो वे भी किसी ने किसी की उपग्रह बनी हुई है।
यहां कविता में तो जाति और धर्म की कोई लड़ाई नहीं है लेकिन कवियों के भीतर की दुनिया यहां संस्थानों/प्रतिष्ठानों के धर्म ईमान के साथ बंटी हुई है। यहां साहित्यजगत में किसी को किसी के मरने-जीने की खबर नहीं है। यहां प्रकाशित पुस्तकों में से पांच प्रतिशत पुस्तकें ही समीक्षा तक पहुंच पाती है। महानगर का लेखक फायदे में है क्योंकि यहां राजनीति और गठबंधन की पूरी सुविधाएं हैं।
यहां गांव और अंचल के लेखक की कहीं कोई गिनती नहीं है तथा उनके अच्छे लिखे को भी शहर का मीडिया और प्रबंधक जब तक मान्यता नहीं देता, तबतक उनका क्या कराया ही सब बेकार है। यहां 99 प्रतिशत लेखक सरकारी सेवा में हैं इसलिए यहां के लेखक में व्यवस्था और राजनीति से बचकर चलने की आदत है।
यहां बड़े-बड़े पुराने लेखक नए और उभरते रचनाकार को नहीं पढ़ते और उनके साहित्य सृजन पर कभी कोई दो शब्द नहीं लिखते। यहां वरिष्ठ लेखकों की यह इच्छा तो रहती है कि नई पीढ़ी और समय का साम्राज्य उनके प्रभाव में रहे लेकिन वे खुद कभी दूसरे लेखकों के लिए अपने घर के बाहर नहीं निकलते। लेखकों में रचना के स्तर पर और व्यक्तिगत स्तर पर एक जीवंत संवाद का अभाव है। यहां कोई लेखक अंचल के छोटे-छोटे समाचार-पत्रों में कभी कुछ नहीं लिखना चाहता। यह अकादमी की पत्रिका को आसानी से घास नहीं डालता यह उसकी विशेषता है।
यहां का लेखक, प्रकाशकों का भी बहुत सताया हुआ है। बिना इस चक्कर लगवाए कोई प्रकाशक किसी लेखक से कभी बात ही नहीं करता। प्रकाशक की सारी गणित यहां पाठ्यक्रम समितियों के सदस्य, केंद्रीय पुस्तक खरीद समिति के सदस्य, बड़े प्रोफेसर, बड़े अफसर और जो पुस्तकें बिकवा सके उनके चारों तरफ ही घूमती रहती है। यह प्रकाशक केवल चमत्कार करता है तथा पूरा अकादमी अनुदान लेखक से वसूल करके ही लेखक की पांडुलिपि की तरफ देखता है। लेखक के पास प्रकाशक की शरण में जाने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं है और राॅयल्टी और काॅपीराइट जैसी बातें तो यहां इने-गिने रुतबेवाले-सम्पर्कशील लेखकों को ही नसीब हैं। यहां साहित्य का भूत, भविष्य और वर्तमान हिंदी के व्याख्याता ही तय करते हैं तथा आयोजन, प्रायोजन, मान्यता और स्थापना के सारी चौपड़ यही लोग बिछाते हैं।
यहां एक छोटे से अखबार का या किसी लघुपत्रिका का संपादक ही एक बड़े और प्रतिभाशाली लेखक पर भारी पड़ता है। यहां साहित्य की अनेक लघुपत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं लेकिन इनमें कोई आपसी संवाद और साझादारी नहीं है। सभी तरह ‘वन मैन शो‘ चल रहा है। क्योंकि सामूहिकता, संगठन, विचारधारा और सामाजिक प्रतिबद्धताओं से सबको घाटे का अंदेशा रहता है।
बहरहाल यहां का साहित्य और समाज जिस विसंगतियों से जूझ रहा है उसके बावजूद भी यहां के रचनाकार की मुख्यधारा साम्प्रदायिकता और सामंतवाद विरोधी है। यदि साहित्य के स्वस्थ आयोजन, प्रकाशन और मूल्यांकन के विकल्प तैयार किए जाएं तो यही अपेक्षित और एकान्तवादी लेखक एक सार्थक संघर्षशील साझीदार भी बन सकता है। राज्य में लेखक की पिछले दो हजार साल की लड़ाई सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मोर्चों पर ‘ठकुराई‘ के खिलाफ रही है। यह राजस्थान का दुर्भाग्य है कि यहां जो भी मान्य और पुरस्कृत हो जाता है वह ऋषि बनकर अपने घर में बैठ जाता है। वह अपने को ही साहित्य और समय की परम्परा समझने लगता है तथा नए रचनाकार को एक साथी संवादी बनाने की जगह उसे अपना चेला बनाने की कोशिश अधिक करता है। यहां महावीर प्रसाद द्विवेदी की तरह नई साहित्यिक प्रतिभाओं के साथ कोई मेहनत नहीं करता लेकिन अपनी पालकी उठवाने का दम्भ अवश्यक पाले रहता है। कई लेखक अपवाद भी हैं लेकिन कुल मिलाकर राजस्थान में साहित्यकार को समाज और समय के स्तर पर समझने का कोई प्रयास यहां नहीं किया जा रहा है। यहां बाहर की पत्र-पत्रिकाओं में छपने वालों को सभी मान्यता देते हैं लेकिन अपने आसपास उसके सृजन और सरोकार का कोई नोटिस नहीं लेते।
अतः मेरा आग्रह है कि दीवार पर लिखे सत्य को पढ़िए, मनुष्य के भीतर गुजरते हुए समय को जानिए और अपने कथित अहंकार और श्रेष्ठता के दायरों से बाहर आइए। शब्द को उसके भविष्य की तलाश है। साहित्य शब्दों की एक ईमानदार दुनिया का नाम है तथा आप उसे किसी बाजार में ढूंढ़ने मत जाइए और आज ही अपने भीतर ढूंढ़िए।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं)