गोपाल झा.
राजनीति में एक शब्द चर्चित और लोकप्रिय है, जिसे ‘आलाकमान’ कहते हैं। आलाकमान बेहद शक्तिशाली होता है। दल का ‘दिल’ होता है। जिस तरह शरीर में दिल काम करना बंद कर देता है तो व्यक्ति की सांसें थम जाती हैं, उसी तरह अगर किसी राजनीतिक दल में आलाकमान कमजोर हो तो उस पार्टी के अस्तित्व पर सवाल लाजिमी है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को ही लीजिए। आलाकमान किस तरह की भूमिका निभा रहा ? देखा जाए तो इस वक्त कांग्रेस की राजनीति में ‘आलाकमान’ शब्द ही बेमानी है। कौन आलाकमान ? कैसा आलाकमान ? क्यों आलाकमान ? जी हां। इस तरह के सवालों से जूझ रहा है कांग्रेस आलाकमान।
दरअसल, तीन सवालों के जवाब से कांग्रेस की अंदरुनी कहानी स्वतः सामने आ जाती है। आलाकमान का जिक्र होते ही कांग्रेस में सोनिया, राहुल और प्रियंका की तस्वीर उभर आती है। सोनिया की बात छोड़ भी दें तो इन दो नेताओं को कांग्रेसजन ‘आला’ तो मान सकते हैं लेकिन ‘कमान’ सौंपने की बात पर दुविधा महसूस करते हैं। बेशक, राहुल दिल के अच्छे और सच्चे हो सकते हैं लेकिन उन्हें समझना होगा कि राजनीति दिल नहीं दिमाग से करने वाली पद्धति है। अमूमन, राहुल के दिमाग पर दिल हावी रहने के प्रमाण मिलते हैं, और वे यहीं पर गच्चा खा जाते हैं। यही स्थिति प्रियंका की भी है। सच तो यह है कि एक परिवार देश की सबसे पुरानी पार्टी से बड़ा नहीं हो सकता।
मल्लिकार्जुन खड़गे अनुभवी और दबंग राजनेता माने जाते हैं। वे राजस्थान की राजनीति को भी बखूबी जानते हैं। गहलोत-पायलट प्रकरण में ‘आलाकमान’ का दूत बनकर वे ही राजस्थान आए थे जहां पर ‘बड़ा खेला’ हो गया। आलाकमान के मंसूबे पर पानी फिर गया था। खड़गे ने इस प्रकरण की गंभीरता को महसूस किया। उन्होंने इसे अपनी ‘हार’ नहीं मानी बल्कि वास्तविक रिपोर्ट ‘आलाकमान’ तक पहुंचाई। यह दीगर बात है कि उस प्रकरण के बाद भी ‘आलाकमान’ इस बात के लिए आत्ममंथन करने के लिए तैयार नहीं कि आज वह कमजोर स्थिति में क्यों हैं ?
संगठन चलाने के लिए रणनीति की जरूरत पड़ती है और संसाधनों की भी। रणनीति बनाने और संसाधनों की व्यवस्था करने के लिए कौशल और चेहरे की जरूरत पड़ती है। कांग्रेस में कितने ऐसे चेहरे हैं जो इस कसौटी पर खरा उतर पाते हैं ? यकीनन, गहलोत ऐसे चंद नेताओं में हैं जिनके पास राजनीतिक चतुराई है, रणनीति है और कौशल भी। जाहिर है, आलाकमान यह समझने में भूल कर रहा है। गहलोत और पायलट को एक तराजू पर तोलना ही सबसे बड़ी भूल है। गहलोत वर्तमान हैं तो पायलट भविष्य। भविष्य संवारने के लिए वर्तमान की अनदेखी करना हमेशा आत्मघाती होता है। कांग्रेस यह समझने के लिए तैयार नहीं है।
आलाकमान तब सर्वमान्य होता है, जब उसके पास अपार शक्ति हो। लोकतंत्र में वोट हासिल करने की शक्ति ही सर्वोपरि मानी जाती है। बेशक, सोनिया, राहुल और प्रियंका के पास फिलहाल यह शक्ति नहीं है। ऐसे में उन्हें क्षेत्रीय क्षत्रपों की बातें माननी ही होगी। राजस्थान में चुनाव का एलान हो चुका है। बीजेपी उम्मीदवारों की दूसरी लिस्ट घोषित कर चुकी है। अब उसे 200 में से सिर्फ 76 उम्मीदवार तय करने हैं जबकि कांग्रेस अब तक बमुश्किल 33 उम्मीदवारों का एलान कर पाई है। सवाल यह है कि आखिर ऐसी क्या दुविधा है कांग्रेस के पास ?
मीडिया में जिस तरह की खबरें आ रही हैं कि आलाकमान कैबिनेट मंत्री शांति धारीवाल, महेश जोशी और धर्मेंद्र राठौड़ को टिकट नहीं देना चाहता। इसलिए कि उन्होंने 25 सितंबर को आलाकमान के आदेश की अवहेलना करने में बड़ी भूमिका निभाई। सवाल लाजिमी है कि फिर कांग्रेस सचिन पायलट और उनके समर्थक उन 18 विधायकों को टिकट कैसे दे सकती है ? सचिन ने तो उन विधायकों के साथ कांग्रेस की सरकार गिराने की ‘साजिश’ रची थी। तो क्या, सचिन आलाकमान की सहमति से ऐसा कर रहे थे ?
खैर। इसमें दो राय नहीं कि गहलोत और पायलट सिर्फ इसलिए मनमानी कर रहे क्योंकि उन्हें पता है, घर का मुखिया मजबूत नहीं है। ऐसे में मुखिया को भी तटस्थ भूमिका निभाने की जरूरत है। इसी में कांग्रेस की भलाई है और आलाकमान के सम्मान को बचाए रखना भी।