जब सयाने लोग रखने लगे दो गज़ की दूरी!

जैनेंद्र कुमार झांब.

 हुआ यूँ कि एक मित्र ने एक आयोजन किया, तीस चालीस करीबियों को बुलाया। पाँच छः साहित्यकार सदृश लोग भी बुलाए। उनको मंच पर और हमको उनके सामने धर दिया। उनमें से एक मूर्धन्य जी अपने श्रीमुख से जब कुछ यूँ बोले-‘ये सभी जो सामने बैठे हैं ये बेचारे तो अतिथेय का मान रखने को आए बैठे हैं। इन्हें साहित्य के सींग पूँछ का क्या पता?’ 

तब बंदा हत्थे से उखड़ गया जी। फिर उन महान् साहित्य सेवक महोदय के सींग पूँछ पकड़ लिए। फिर ‘माननीय’ को साविधि समझाया कि सर तुम्हारी ये जो रंग-बिरंगी पतंगें आसमान में पेंच लड़ा रही हैं, उनकी डोर ज़मीन पर ही किसी ने थाम रखी है और उसके पीछे हम जैसे ही कोई बैल चरखी लिए खड़े हैं। धागा तोड़ दिया हमने तो पतंग चौराहे पर जा गिरनी है, भोले साहित्यकार जी !!! तुम्हारी पतंग लूटने वाले हमसे भी बड़े बुद्धिबैल होंगे। बुद्धिघटों! तुम जिस मंच पर बैठते हो वो हम जैसों के चंदे से हैं। यदि तुम्हारे पल्ले कथित ज्ञान है तो हमें भी चखाते चलो, हमें लतियाओगे तो ज्ञान का भ्रम लिए बैठे हो बे! जिन्होंने तुम्हारे सामने दरी बिछाकर स्वयं उसपर बैठना कुबूल किया है, उन्होंने अगर दरी झाड़ दी तो यों उड़ी गर्द में तुम्हारा सांस तक लेना दुश्वार होगा। यदि तुममें अपने साहित्यिक ज्ञान का दंभ है तो तुम्हारा ज्ञान जो है वो उल्टा लटका हुआ घंटा है, बजाते रहो!! 

 अब सयाने लोग मुझसे दो गज़ की दूरी मेंटेन रखते हैं। मतलब यह कि ज्ञानियों को हम जैसे मूर्खों के सामने गुणिये में रहना चाहिए। 
 आयोजन के पश्चात ‘मंचरत्न’ अपने अपने झोलों में से अपनी अपनी किताबें निकाल कर आयोजक और अतिथियों को चिपकाने का प्रयास करते हुए दृष्टिगोचर हुए। इसरार और मोलभाव करते हुए उनकी ‘बॉडीलेंग्वेज’ रोडवेज की बस में दिव्यदृष्टि सुरमा बेचने वालों जैसी सी देखी गई। दोनों में से कौन प्रेरक है और कौन प्रेरित, शोध का विषय है जी।
सिर खपाई का निष्कर्ष यह है कि अपना साहित्य बेचने का प्रयास करता हुआ साहित्यकार मंचासीन साहित्यकार का इन साइड आउट होता है। 
(लेखक राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक मसलों पर कटाक्ष के लिए जाने जाते हैं)

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