पॉलिटिकल डेस्क.
गहलोत विरोधी दल में अभी तक तय नहीं है कि किस सेनापति की अगुवाई में चुनाव मैदान में जाएंगे, किसकी अंगुली पकडें, किसके धोक लगाएं, किसके दरवाजे हाजिरी लगाएं कि कल्याण हो जाए। उपरवालों ने स्पष्ट रूप से संकेत दे दिए हैं कि केवल एक चेहरे पर चुनाव में जाएंगेए परिणाम चाहे कर्नाटक जैसे हों। अब यह कहने की हिम्मत किसमें है कि कहे चेहरे का असर 2024 पर भारी पड सकता है।
ये हैं गजेंद्र सिंह शेखावत। जो चले तो थे वसुंधरा राजे का विकल्प बनने लेकिन बीच रास्ते में ‘संजीवनी’ उनको लेकर डूब गई। लेकिन अभी तक उन्होंने हार नहीं मानी है, धरतीपकड पहलवान की तरह मैदान नहीं छोडा है, वे किसी चमत्कार की आस में हैं।
दूसरे नंबर पर अश्विनी वैष्णव हैं, जो प्रधानमंत्री के विश्वस्त माने जाते हैं। ये अपनी ‘परफार्मेंस‘ को लेकर बडे मुगालते में थे, बालासोर रेल दुर्घटना ने उनकी बहुत सी गलतफहमियां दूर कर दी लेकिन अभी तक वे प्रधानमंत्री की नजरें इनायत होने की उम्मीद लगाए बैठे हैं। ब्राम्हण कोटे से वे मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं लेकिन राजस्थान के ब्राम्हण उन्हें ओबीसी का मानकर स्वीकार ही नहीं कर रहे।
जाट कोटे से सतीश पूनिया चौथे सेनापति हैं और थोडे दिनों पहले खुद को मुख्यमंत्री पद का सबसे पहला और मजबूत दावेदार मान रहे थे। भाजपा आलाकमान ने प्रदेश संगठन की कमान खोस कर उनको उनकी हैसियत का अहसास करा दिया।
राजनीति में उभरती हुई महिला नेत्री और जयपुर के पूर्व राजघराने से ताल्लुक रखने वाली दिया कुमारी को भी महसूस हो रहा है कि वे प्रदेश की पूर्व महिला मुख्यमंत्री का विकल्प हैं। संगठन के शीर्ष नेतृत्व से उनको इशारा भी हुआ बताते हैं, वे भावी सीएम की तरह व्यवहार कर रही हैं। छठे उम्मीदवार, अपने नफासत भरे अंदाज के लिए पहचाने जाने वाले राज्यवर्द्धन सिंह राठौड हैं, जो इस पंक्ति में अपना नाम दर्ज करवा चुके हैं। उन्हे लगता है जब बहुत से नामों पर विवाद होगा तो उनके नाम पर ही सहमति होगी।
सातवें नंबर के दावेदार बडे मजबूत हैं, दूसरों के नेतृत्व में काम करते करते उनको यह महसूस हुआ कि जब नए पुराने सभी दावेदारी कर रहे हैं तो मैं क्यों नहीं। जी हां, आपने बिलकुल ठीक समझा, राजेंद्र राठौड। जिन्होंने जनता दल से शुरू कर प्रदेश के कद्दावर नेता भैंरोंसिंह शेखावत से राजनीति के गुर सीखते हुए अब तय किया कि दूसरे की पालकी नहीं ढोउंगा। पूरी ताकत के साथ वे नेतृत्व के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं लेकिन कई पुराने पन्ने ऐसे हैं जो उनकी राह को रोडा बन सकते है, फिर भी उम्मीदवारी की आस बाकी है। एक धारणा यह बनी हुई है कि मुख्यमंत्री बनने के लिए आरएसएस पृष्ठभूमि होना जरूरी है लेकिन हिमंत बिस्व शर्मा ने इस मिथक को तोड दिया है।
भाजपा जिस तरह से ओबीसी पर डोरे डाल रही है उससे भूपेंद्र यादव भी एक दावेदार बन कर उभरे हैं। वे अंदर ही अंदर तैयारी भी कर रहे हैं। अभी वे सामने नहीं आ रहेए क्योंकि कारसेवा में कमी नहीं रखने वालों की कमी नहीं है।
ये तो थे दस उम्मीदवार, अब बात करते हैं ग्यारहवें नंबर पर आने वाली सबसे मजबूत। दो बार की मुख्यमंत्री और प्रदेश में वोट ट्रांसफर की ताकत रखने वाली वसुंधरा राजे की। उनको जिस तरह से नेपथ्य में धकेला गया है, उससे उनके समर्थक और राजनीतिक विश्लेषक हैरान हैं। भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें स्पष्ट रूप से कह दिया है कि पार्टी में मुख्यमंत्री पद के अलावा अपनी कोई दूसरी भूमिका तय कर लेंए चुनाव तो मोदी के चेहरे पर ही लडा जाएगा। उन्हें इस बात का इहलाम है कि पार्टी छोडते ही उनके वजूद पर सवालिया निशान लग जाएगा, ज्योतिरादित्य का हश्र उनके सामने है तो घनश्याम तिवाडी भी अच्छा उदाहरण है।
तो साहब, अशोक गहलोत अपने काम, योजनाएं और रणनीति के साथ चुनाव मैदान में उतर चुके हैं, भाजपा को सूझ ही नहीं रहा कि उनके चुनाव कौशल का सामना कैसे करें। हां, सचिन पायलट गहलोत के लिए थोडी परेशानी का सबब जरूर हैं लेकिन हमेशा की तरह वे इस चुनौती से पार पा चुके हैं, ऐसा राजनीतिक पंडित मानकर चल रहे हैं। सरकार के खिलाफ ‘एंटी इंकम्बेंसी‘ नहीं है, जनता खुश है, गहलोत यह माहौल बना चुके हैं कि सरकार रिपीट हो रही है। इसका तोड भाजपा के पास केवल एक चेहरा है, जिसकी चमक कुछ फीकी पडती नजर आ रही है, कर्नाटक चुनाव के बाद!