




डॉ. एमपी शर्मा.
मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग पहचान दिलाने वाला सबसे सशक्त माध्यम है, उसकी वाणी। यह केवल संप्रेषण का उपकरण नहीं, बल्कि संस्कारों, संवेदनाओं और संस्कृति का प्रतिबिंब होती है। हमारी वाणी से ही दूसरों को हमारी सोच, भावनाएं और चरित्र का बोध होता है। यही कारण है कि संत और विचारक वाणी को केवल बोलचाल का माध्यम नहीं, बल्कि साधना का विषय मानते आए हैं। कबीर हों या तुलसी, गांधी हों या गुरुनानक। सभी ने वाणी की महत्ता को रेखांकित किया। आज के समय में, जब शब्दों का संसार आभासी मंचों पर फैल चुका है, तब वाणी का संयम और उसकी मर्यादा पहले से कहीं अधिक आवश्यक हो गई है। क्योंकि शब्द सिर्फ संवाद नहीं करते, वे विश्वास बनाते हैं, रिश्ते गढ़ते हैं और कभी-कभी इतिहास भी।
मनुष्य की वाणी न केवल उसके विचारों की अभिव्यक्ति है, बल्कि उसके चरित्र और संस्कृति का आईना भी होती है। कबीरदास जैसे संतों ने वाणी को साधना का विषय माना। कबीर कहते हैं,
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय,
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय।
यह केवल एक दोहा नहीं, अपितु एक जीवन मंत्र है। बोलने की शैली में यदि मिठास हो, तो वह शीतल जल के समान होती है कृ जो न केवल सामने वाले को तृप्त करती है, बल्कि बोलने वाले को भी सुख देती है।

बोली का प्रभाव असरदायी होता है। बोली ही है जो मनुष्य के रिश्ते जोड़ती और तोड़ती है। घर-परिवार में एक मीठा बोल बर्फ जैसा तनाव भी पिघला सकता है। वहीं कटु वाणी रिश्तों में दरार डाल सकती है। किसी का मनोबल बढ़ा भी सकती है, गिरा भी सकती है। एक गुरु का प्रेरक वचन शिष्य के जीवन की दिशा बदल सकता है। एक अपमानजनक टिप्पणी किसी बच्चे के आत्मविश्वास को चूर कर सकती है।
राजनीति, समाज और धर्म में वाणी का व्यापक असर है। गांधीजी ने बिना शस्त्र उठाए, केवल संयमित और अहिंसक वाणी से एक साम्राज्य की नींव हिला दी। वहीं इतिहास गवाह है कि कुछ भड़काऊ भाषणों ने हिंसा और दंगों की आग भड़का दी। कबीर कहते हैं,
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि।;

कबीर स्पष्ट करते हैं कि बोलने से पहले मन में उसे तौलना चाहिए, क्या यह वाणी किसी को ठेस तो नहीं पहुँचाएगी? बोली पर तुलसीदास कहते हैं,
‘सुभाषित सुधा एक रस बानी।
जिमि अमृत घृत सदन सुहानी॥’
अर्थात, मधुर वाणी अमृत के समान है, जो मन को प्रसन्न करती है। जैसे, डॉक्टर और मरीज। एक डॉक्टर का सहयोगी, सांत्वनादायक स्वर मरीज को आधा ठीक कर सकता है, जबकि रूखा व्यवहार मरीज की पीड़ा बढ़ा देता है। वहीं, शिक्षकों की सराहना व प्रोत्साहन देने वाली वाणी से विद्यार्थियों की प्रतिभा खिलती है, जबकि तिरस्कार से वे सिमट जाते हैं। बच्चों को डाँटने की बजाय समझाने की भाषा उनके मानसिक विकास के लिए अधिक उपयोगी होती है।

वाणी का संयम क्यों है ज़रूरी ?
सोशल मीडिया के दौर में शब्दों की ताकत और बढ़ गई है। एक गलत ट्वीट या टिप्पणी समाज में उथल-पुथल मचा सकती है। ऐसे में संयमित, सकारात्मक और शालीन भाषा का प्रयोग हमारी जिम्मेदारी है।
वाणी वह तीर है जो छूटने के बाद लौटता नहीं। मीठी भाषा केवल एक सामाजिक गुण नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक साधना भी है। वाणी का चयन हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करता है। इसलिए बोलने से पहले विचार करें, क्या यह शब्द किसी के लिए मरहम है या ज़हर? आइए, कबीर की वाणी को अपनाते हुए अपने जीवन में ऐसा बोलचाल का संस्कार विकसित करें जो न केवल दूसरों को शीतल करे, बल्कि स्वयं के भी मन को शांति दे।
-लेखक सामाजिक चिंतक व आईएमए राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं



