


डॉ. संतोष राजपुरोहित.
भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ युवाओं की आबादी करोड़ों में है, वहाँ रोजगार का सवाल केवल आय का नहीं बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा, सुरक्षा और भविष्य की स्थिरता से भी जुड़ा हुआ है। इन संदर्भों में यह देखा गया है कि आज भी बड़ी संख्या में युवा स्वरोजगार की अपेक्षा सरकारी नौकरी को वरीयता देते हैं। यह आलेख तर्कसंगत रूप में विश्लेषण करता है कि ऐसा क्यों हो रहा है, क्या यह सुरक्षा की चाह है, सामाजिक मानसिकता, या फिर स्वरोजगार से जुड़े जोखिम का डर?
स्वरोजगार का आशय है कि व्यक्ति अपने कार्य का स्वामी स्वयं हो, वह अपना व्यवसाय, उद्यम या सेवा शुरू करता है। दूसरी ओर, सरकारी नौकरी वह है जहाँ व्यक्ति सरकार के किसी विभाग में निश्चित नियम, वेतन और सुरक्षा के साथ काम करता है।
नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 15-29 वर्ष के आयु वर्ग के लगभग 68 फीसद युवा स्वरोजगार की बजाय सुरक्षित नौकरी की तलाश में हैं, जिनमें से 51 फीसद विशेष रूप से सरकारी नौकरी को प्राथमिकता देते हैं। इसके पीछे कई कारण हैं, जो आर्थिक, सामाजिक, और मनोवैज्ञानिक हैं।
सरकारी नौकरी में स्थायित्व, नियमित वेतन, पेंशन जैसी सुविधा, और काम की निश्चितता युवाओं को आकर्षित करती है। इसके विपरीत, स्वरोजगार में आमदनी की अनिश्चितता, निवेश का जोखिम और बाज़ार में प्रतिस्पर्धा का दबाव रहता है। ऐसे में एक मध्यमवर्गीय परिवार से आने वाला युवा सरकार की नौकरी को ज़्यादा सुरक्षित विकल्प मानता है।
भारत में सरकारी नौकरी को अब भी ‘सम्मानजनक’ और ‘प्रतिष्ठित’ माना जाता है। विशेषकर ग्रामीण एवं अर्ध-शहरी क्षेत्रों में एक सरकारी कर्मचारी को समाज में ऊँचा स्थान प्राप्त होता है। यह सोच वर्षों से बनी हुई है और स्वरोजगार को अभी भी अस्थिर और संघर्षपूर्ण माना जाता है।
भले ही भारत में ‘स्टार्टअप इंडिया’ और ‘मेक इन इंडिया’ जैसी योजनाएँ चलाई जा रही हैं, लेकिन एमएसएमई मंत्रालय के 2024 के आँकड़ों के अनुसार, 60 फीसद से अधिक सूक्ष्म उद्यम पहले दो वर्षों में ही बंद हो जाते हैं। इसके पीछे मुख्य कारण हैं पूंजी की अनुपलब्धता, उचित प्रशिक्षण की कमी, मार्केटिंग की अज्ञानता और तकनीकी सहयोग का अभाव।
भारत की वर्तमान शैक्षणिक प्रणाली अभी भी विद्यार्थियों को नौकरी पाने के लिए तैयार करती है, न कि नौकरी देने के लिए। नौकरी आधारित पाठ्यक्रमों में कौशल, नवाचार, जोखिम प्रबंधन जैसे विषयों की कमी है। परिणामस्वरूप, विद्यार्थी स्वरोजगार की अवधारणा से अपरिचित रहते हैं और सरकारी नौकरी को ही ‘सफलता’ की परिभाषा मान बैठते हैं।
स्वरोजगार में असफलता की आशंका अधिक होती है। असफल होने पर सामाजिक आलोचना, आर्थिक नुकसान और आत्मविश्वास में कमी आती है। इसके विपरीत, एक बार सरकारी नौकरी मिल जाए तो व्यक्ति न केवल सामाजिक रूप से सम्मानित हो जाता है बल्कि वह भविष्य की चिंता से भी मुक्त हो जाता है। यह ष्जोखिम से डरष् युवा मानसिकता में गहराई से बैठ गया है।
सरकारी नौकरियों की संख्या सीमित है जबकि योग्य उम्मीदवारों की संख्या करोड़ों में। केवल 2023-24 में यूपीएससी, एसएससी और अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में सम्मिलित होने वाले युवाओं की संख्या 4 करोड़ से अधिक थी, जबकि कुल रिक्तियाँ मात्र 2.5 लाख रहीं। इससे यह स्पष्ट है कि स्वरोजगार को प्रोत्साहन देना नितांत आवश्यक है।
इसके लिए कुछ उपाय कारगर हो सकते हैं। जैसे,स्कूल और कॉलेज स्तर पर उद्यमिता आधारित पाठ्यक्रम लागू किया जाए। हालांकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में यह प्रयास परिलक्षित हो रहा हैं लेकिन धरातल पर अभी बहुत काम करना शेष हैं। सरकारी योजनाओं की पहुंच और प्रशिक्षण में सुधार किया जाए। स्टार्टअप्स को कर में छूट, ऋण में प्राथमिकता और बाज़ार तक पहुँच में सहायता दी जाए। सफल स्वरोजगारी युवाओं के उदाहरणों को मीडिया में प्रमुखता से प्रस्तुत किया जाए ताकि युवाओं को प्रेरणा मिले।
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि सरकारी नौकरी को वरीयता देने के पीछे कई तर्कसंगत कारण हैं दृ सुरक्षा, स्थायित्व, सामाजिक सम्मान और जोखिम से बचाव। परंतु, यदि भारत को आत्मनिर्भर बनाना है, तो स्वरोजगार को भी समान महत्त्व देना होगा। युवाओं को यह समझाने की ज़रूरत है कि असफलता अंत नहीं, बल्कि सीखने की प्रक्रिया है। तभी देश में नवाचार और आर्थिक स्वतंत्रता की नींव मजबूत होगी।
-लेखक भारतीय आर्थिक परिषद के सदस्य हैं
