






गोपाल झा.
राजस्थान में ‘गिव अप अभियान’ चल रहा है। खाद्य सुरक्षा योजना का लाभ ले रहे अपात्र लोग स्वयं आगे आकर ‘त्याग’ कर रहे हैं। अब तक 31 लाख से अधिक लोग लाभ छोड़ने की घोषणा कर चुके हैं। यह छोटी बात नहीं। यह दर्शाता है कि समाज में ईमानदारी और संवेदना अब भी जिंदा है। सरकार की पहल उचित ही है। गरीब का हक गरीब तक पहुँचे। योजनाएं सही हाथों में जाएँ। लेकिन क्या त्याग की जिम्मेदारी सिर्फ गरीब और अति मध्यमवर्ग पर ही है? क्या ऊपर बैठे लोग मुक्त हैं इस जिम्मेदारी से?

सोचिए। क्या कभी आपने सुना कि किसी पूर्व विधायक या सांसद ने अपनी पेंशन छोड़ी हो? खासतौर पर वे, जो खुद अरबपति और करोड़पति हैं। एक बार चुनाव जीत लो, तो जिंदगीभर पेंशन तय। राजकोष पर बोझ, मगर किसी को फर्क नहीं पड़ता। एक पूर्व विधायक को हर माह 35 हजार रुपये पेंशन। दो बार विधायक रहे तो रकम और बढ़ जाती है। हर साल 1600 रुपये अतिरिक्त। यह सिलसिला चलता रहता है। सवाल यह है, जो पहले से ही अपार संपत्ति वाले हैं, उन्हें यह रकम क्यों?

अब मौजूदा विधायकों की बात। राजस्थान विधानसभा में 200 में से 170 विधायक करोड़पति हैं। शेष भी लखपति। आर्थिक रूप से कमजोर कोई नहीं। फिर भी उन्हें वेतन और भत्तों की लंबी सूची मिलती है। 40 हजार वेतन। 70 हजार निर्वाचन क्षेत्र भत्ता। 30 हजार सहायक कर्मचारी के लिए। जयपुर में निःशुल्क आवास। सालाना तीन लाख की हवाई यात्रा। 80 हजार रुपये का फर्नीचर। और भी अनेक सुविधाएं।

तो यह कैसा लोकतंत्र है? जहां जनता को दी जाने वाली राहत को ‘रेवड़ी’ कहा जाता है। और नेताओं का हिस्सा, ‘अधिकार’। यहां आम ‘लोक’ गायब है। सिर्फ ‘तंत्र’ बचा है।

त्याग की उम्मीद सिर्फ नीचे वाले से क्यों? क्या ऊपरी तबके में त्याग का स्थान खत्म हो गया है? क्यों न करोड़पति, अरबपति विधायक और सांसद खुद पहल करें? क्यों न सरकार उनसे भी ‘गिव अप अभियान’ की अपील करे? क्या इतनी हिम्मत है किसी में?

लोकतंत्र की असली खूबसूरती तब है, जब ऊपर बैठे लोग मिसाल कायम करें। त्याग का भाव दिखाएँ। तभी जनता भी प्रेरित होगी। वरना यह असमानता का खेल हमेशा चलता रहेगा। हमें याद रखना चाहिए, राजनीति सेवा का माध्यम है, धंधा नहीं। सत्ता अवसर है, ऐश का साधन नहीं। त्याग केवल गरीब का धर्म नहीं, यह अमीर का भी कर्तव्य है।

आज आवश्यकता है सवाल उठाने की। क्यों हमारे प्रतिनिधि अपनी सुविधाओं को छोड़ने से डरते हैं? क्यों त्याग का बोझ हमेशा आम आदमी पर है? जब तक यह विसंगति दूर नहीं होगी, लोकतंत्र अधूरा रहेगा। त्याग का असली अर्थ यही है, जो सक्षम है, वह हक छोड़कर जरूरतमंद को रास्ता दे। अगर जनता यह सवाल पूछना शुरू कर दे, तो शायद हमारे नेता भी जवाबदेह बनें। लोकतंत्र तभी सुंदर होगा, जब त्याग ऊपर से नीचे उतरेगा। और जब जनता कह सके, हाँ, यही है मेरा लोकतंत्र।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं



