




डॉ. एमपी शर्मा.
हर साल जब बरसात आती है तो खुशहाली का संदेश लेकर आती है, लेकिन कई बार यही बरसात तबाही बन जाती है। खेत डूब जाते हैं, गांव-शहर जलमग्न हो जाते हैं, लोग बेघर हो जाते हैं और कभी-कभी तो अपनों की जान भी चली जाती है। सवाल उठता है, क्या यह केवल प्रकृति की मार है, या फिर हमारी अपनी गलतियों का परिणाम?

बारिश होना तो प्रकृति का नियम है। कभी-कभार अतिवृष्टि भी होती है, लेकिन असली त्रासदी तब होती है जब इंसान प्रकृति से छेड़छाड़ करता है। हमने पहाड़ों से लेकर मैदानों तक पेड़ों को बेरहमी से काट डाला। नदियों के बहाव क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर मकान और कॉलोनियाँ खड़ी कर दीं। शहरों और गांवों के नालों-नालियों को कचरे से पाट दिया। पुराने तालाब और जोहड़, जो कभी जल संकट से बचाते थे, उन्हें अतिक्रमण करके खत्म कर दिया। परिणाम यह हुआ कि पानी का रास्ता बंद हो गया। और जब पानी रास्ता खोजता है तो घर-गांव-शहर सब बहा ले जाता है।

कागज़ों में योजनाएँ बनती हैं, आपदा प्रबंधन की बातें होती हैं, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि नालों की सफाई तक समय पर नहीं होती। अवैध कॉलोनियों को राजनीतिक दबाव में नियमित कर दिया जाता है। प्रशासनिक लापरवाही और राजनीतिक हस्तक्षेप मिलकर हालात और बिगाड़ देते हैं।

अब भी देर नहीं हुई है। अगर हम सब मिलकर ठान लें तो हालात बदल सकते हैं। नदियों और तालाबों पर अतिक्रमण हटाना होगा। शहरों में पक्की और वैज्ञानिक ड्रेनेज व्यवस्था बनानी होगी। पारंपरिक जल स्रोतों को पुनर्जीवित करना होगा। बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण करना होगा और पहले से लगे पेड़ों को बचाना होगा। प्रशासन को जवाबदेह बनाना होगा और लापरवाही पर सख्त कार्रवाई करनी होगी।

बाढ़ केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि हम सबकी भी है। नालियों में कचरा डालकर पानी का बहाव मत रोकिए। वर्षा जल संचयन को अपनाइए। अतिक्रमण का समर्थन मत कीजिए। हरियाली बचाइए और पेड़ लगाइए। बाढ़ पीड़ितों की मदद को अपना कर्तव्य समझिए।

बाढ़ केवल पानी की नहीं, बल्कि चेतावनी की लहर है। यह हमें याद दिलाती है कि अगर हमने प्रकृति से संतुलन बिगाड़ा तो प्रकृति हमें झकझोर कर सबक सिखाएगी। इसलिए अब समय है कि हम सब मिलकर जागें, जिम्मेदारी निभाएं और अपने गांव-शहरों को जल प्रलय से बचाएं।
-लेखक सामाजिक चिंतक, सीनियर सर्जन और आईएमए राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं





