


बीसवीं सदी के मध्य में लड़े गए वियतनाम युद्ध ने न केवल वैश्विक राजनीति की दिशा बदली, बल्कि यह मानव इतिहास में साहस, संघर्ष और संकल्प की सबसे मार्मिक गाथाओं में से एक बन गया। यह युद्ध केवल गोले-बारूद की लड़ाई नहीं थी, यह विचारधाराओं की टकराहट थी। एक ओर साम्यवाद का विस्तार रोकने की अमेरिकी रणनीति, तो दूसरी ओर अपनी स्वतंत्रता और अस्मिता की रक्षा करता एक छोटा राष्ट्र। वियतनाम युद्ध ने यह सिद्ध कर दिया कि आत्मबल, जनसमर्थन और राष्ट्रप्रेम किसी भी महाशक्ति की सैन्य ताकत को परास्त कर सकते हैं। यह लेख उसी ऐतिहासिक संघर्ष की पड़ताल करता है, जिसमें एक छोटे राष्ट्र ने साम्राज्यवादी आकांक्षाओं के विरुद्ध अद्भुत धैर्य और साहस का परिचय दिया।

डॉ. एमपी शर्मा.
बीसवीं सदी के सबसे लंबे और विनाशकारी युद्धों में से एक, वियतनाम युद्ध (1955-1975) सिर्फ एक भू-राजनीतिक टकराव नहीं था, यह एक छोटे राष्ट्र की असाधारण जिजीविषा और आत्मबल का प्रतीक बन गया। यह युद्ध उस समय शुरू हुआ जब अमेरिका ने साम्यवाद के फैलाव को रोकने के नाम पर दक्षिण वियतनाम में हस्तक्षेप किया, और इसे रोकने के लिए उत्तर वियतनाम के खिलाफ एक महायुद्ध छेड़ दिया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व दो ध्रुवों में बंट गया। अमेरिका (पूंजीवादी) और सोवियत संघ (साम्यवादी)। वियतनाम भी दो हिस्सों में बंटा, उत्तर वियतनाम (साम्यवादी) और दक्षिण वियतनाम (अमेरिका समर्थक)। अमेरिका को डर था कि यदि वियतनाम साम्यवादी हो गया तो ‘डोमिनो सिद्धांत’ के तहत पूरा दक्षिण-पूर्वी एशिया साम्यवादी हो जाएगा। यही डर अमेरिका को युद्ध में खींच लाया। एक ऐसी लड़ाई में जहाँ वह शत्रु की भूमि, भूगोल, संस्कृति और मानसिकता को पूरी तरह से नहीं समझ पाया।
अमेरिका को क्या हासिल हुआ? 20 वर्षों की लड़ाई के बाद भी अमेरिका कोई निर्णायक जीत नहीं दर्ज कर सका। अमेरिका को भारी आर्थिक नुकसान और 58,000 से अधिक सैनिकों की जान की कीमत चुकानी पड़ी। अंततः 1975 में अमेरिका को सैनिक वापसी करनी पड़ी और वियतनाम पूर्ण रूप से एकीकृत साम्यवादी राष्ट्र बन गया। यानी एक महाशक्ति की नीतिगत हार।
वियतनामी सैनिकों (विशेषतः वियेतकोंग) ने गुरिल्ला युद्ध शैली में अमेरिकी सेना को चकमा दिया।घने जंगलों, सुरंगों, और स्थानीय सहयोग के बल पर उन्होंने अमेरिका के उन्नत हथियारों का डटकर मुकाबला किया। उन्होंने साबित किया कि युद्ध सिर्फ हथियारों से नहीं, आत्मबल, देशभक्ति और जनसमर्थन से जीते जाते हैं।
इस युद्ध की विभीषिका का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसमें लगभग 20 लाख वियतनामी नागरिकों की मृत्यु हुई। 10 लाख से अधिक सैनिक मारे गए। अमेरिकी सेना ने नैपाम बम और एजेंट ऑरेंज जैसे रासायनिक हथियारों का प्रयोग किया, जिससे पीढ़ियों तक विकलांगता और कैंसर जैसी बीमारियाँ हुईं। हजारों गांव, खेत, जंगल और नदियाँ बर्बाद हो गए। एक पूरा देश राख के ढेर में बदल गया।
यह हर देश के लिए संदेश भी था कि हर छोटा देश कमजोर नहीं होता और हर बड़ा देश अजेय नहीं होता। किसी देश की आत्मा को हथियारों से नहीं हराया जा सकता। सामरिक शक्ति यदि नैतिक बल से रहित हो, तो वह अंततः पराजय की ओर ही जाती है। युद्ध थोपने वाले अंततः अपने ही बोझ से दब जाते हैं।
वियतनाम युद्ध एक सीख है, राजनीतिक उद्देश्य से थोपे गए युद्ध मानवता के खिलाफ अपराध बन जाते हैं। आज भी वियतनाम पुनर्निर्माण की राह पर अग्रसर है, पर उसकी आत्मगौरव और वीरता की गाथा इतिहास के पन्नों में अमर हो चुकी है।
जहाँ जनमन में स्वतंत्रता की चाह हो, वहाँ कोई बाहरी शक्ति उसे दास नहीं बना सकती। वियतनाम की यह कहानी सिर्फ इतिहास नहीं, आज के शक्तिशाली देशों के लिए एक चेतावनी है, बल से नहीं, सम्मान और संवाद से ही शांति संभव है।
-लेखक सीनियर सर्जन और आईएमए राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं
