



गोपाल झा.
राजस्थान की राजनीति इस समय किसी ऐसे विशाल रेगिस्तान जैसी लगती है, जहाँ दूर तक फैली रेत तो दिखती है, पर रास्ता धुँधला पड़ जाता है। बिहार में अप्रत्याशित जीत का झंडा फहराने वाली बीजेपी राजस्थान में उसी वक्त ‘घायल यात्री’ की तरह खड़ी मिलती है। अंता उपचुनाव की हार कोई साधारण झटका नहीं है; यह वह थपकी है, जिसे जनता तब देती है जब उसे लगता है कि सत्ता ने उसकी आवाज़ का मतलब समझना बंद कर दिया है।

मोरपाल सुमन की पराजय ने पार्टी को भीतर तक हिला दिया। हालात ऐसे बने कि मुख्यमंत्री से लेकर प्रदेशाध्यक्ष तक यानी हर चेहरे पर निराशा की परछाईं तैरती नजर आ रही। सत्ता में रहते हुए अपनी ही सीट न बचा पाने का दर्द किसी भी राजनीतिक दल के लिए सिर्फ आंकड़ा नहीं होता; यह उस भरोसे की टूटन होती है, जो जनता और सत्ता के बीच पुल का काम करती है। प्रदेशाध्यक्ष मदन राठौड़ ने हार स्वीकारते हुए आत्ममंथन की बात कही, पर सवाल यह है कि क्या पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उस आत्ममंथन को ईमानदारी से करेगा?

राजस्थान की राजनीति को ‘दिल्ली वाली पर्ची’ से चलाने की कोशिश शुरू से ही गड़बड़ थी। जनता मुखिया को स्वीकार करती है, मुखिया थोपे नहीं जाते। भजनलाल शर्मा दो वर्षों से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जरूर बैठे है, पर जनता के दिल तक उनका सफर कभी पहुंच नहीं पाया। लोकप्रियता अनुभव और सतत संवाद से बनती है, और यही संवाद इस सरकार में गायब दिखा। इससे बड़ा सवाल यह है कि वसुंधरा राजे, गुलाबचंद कटारिया, किरोड़ीलाल मीणा, राजेंद्र राठौड़ व सतीश पूनिया जैसे अनुभवी नेताओं को किनारे कर पार्टी ने यह सोच भी कैसे ली कि राजस्थान की राजनीति बिना उनके ‘मिट्टी के ज्ञान’ के समझी जा सकती है।

बीजेपी ने अपने पुराने स्तंभों को साइडलाइन कर नेतृत्व की चकाचौंध तो पैदा कर दी, पर संगठन की जड़ों में कमजोरी डाल दी। यही कमजोरी चुनावी मैदान में दिखाई दी। अंता में दुष्यंत सिंह को प्रभारी बनाकर एकजुटता का दिखावा तो कर दिया गया, पर जनता दिखावे की राजनीति को सूंघ लेती है। वसुंधरा राजे और भजनलाल शर्मा का संयुक्त रोड शो भी कोई असर न ला सका, क्योंकि पार्टी के भीतर मन से लड़ने का जज्बा ही कम था। नेताओं में ऊर्जा कम और नाराजगी ज्यादा थी। राजनीति में मन के तापमान का असर भी वोटों पर पड़ता है, यह पुराना सच है, और इस सच को बीजेपी मानने में चूक गई।

नरेश मीणा को हल्के में लेना पार्टी की सबसे बड़ी भूल साबित हुई। राजनीति में विरोधी का कद उसके दल से नहीं, उसके प्रभाव से मापा जाता है। मीणा समाज कई सीटों पर दिशा तय करता है। अगर डॉ. किरोड़ीलाल मीणा को पूरी ताकत के साथ चुनावी रण में उतारा जाता, तो परिस्थितियाँ बदल सकती थीं। पर उन्हें सिर्फ नाम भर के लिए भेजा गया, जैसे औपचारिकता निभानी हो, लड़ाई जीतनी नहीं।

इसके विपरीत कांग्रेस ने चुनाव को एकदम जमीनी शैली में लड़ा। वह शैली, जिसमें नेता सड़क पर उतरकर लोगों की नब्ज़ टटोलते हैं। प्रमोद जैन भाया के पीछे गहलोत खेमे का समर्थन था, पर दिलचस्प यह कि पायलट खेमा भी पूरे मन से साथ खड़ा दिखा। यह दृश्य पिछले कई वर्षों से राजस्थान में दुर्लभ था। कांग्रेस की एकजुटता ने उपचुनाव को संगठन की शक्ति का प्रदर्शन बना दिया। गोविंद सिंह डोटासरा, टीकाराम जूली, हर नेता अपने हिस्से का बोझ उठाकर मैदान में उतरा। चुनाव जीते भी इसी कारण, क्योंकि जीत मेहनत से मिलती है, बहस से नहीं।

इस चुनाव में एक और महत्वपूर्ण पात्र उभरे, नरेश मीणा। उनकी बढ़ती लोकप्रियता को बीजेपी न पढ़ सकी। आरएलपी के हनुमान बेनीवाल हों, ‘आप’ के संजय सिंह हों, या राजेंद्र सिंह गुढ़ा, सभी उनके समर्थन में उतर आए। यह गठजोड़ उस राजनीतिक बदलाव का संकेत है, जहाँ क्षेत्रीय नेतृत्व की ताकत राष्ट्रीय दलों की रणनीतियों को मात दे देती है।
अब बड़ा सवाल सामने खड़ा है, क्या राजस्थान सरकार और बीजेपी संगठन आने वाले चुनावों का सामना कर पाएंगे? पंचायत और शहरी निकाय चुनाव टालने के प्रयास पहले ही सरकार की नीयत पर सवाल उठा चुके हैं। उसी दिन उपचुनाव परिणाम और हाईकोर्ट का अल्टीमेटम आना किसी संयोग से ज्यादा संकेत की तरह लगता है। यह संकेत बताता है कि जनता इंतजार नहीं करती। वह निर्णय देती है, सीधा और निःसंकोच। अब गेंद बीजेपी के पाले में है। उसे तय करना है कि वह इस उथल-पुथल को सिर्फ हवा मानकर उड़ा देगी या इसे सुनकर अपने कदमों की दिशा बदलेगी। लोकतंत्र में जनता अंतिम निर्णायक होती है, और जनता का मन जितना शांत दिखता है, उतना ही गहरा भी होता है। यही गहराई आने वाले महीनों में बीजेपी की परीक्षा लेने वाली है।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं


