



गोपाल झा.
राजस्थान की सियासत में इन दिनों कांग्रेस चर्चा में है, क्योंकि वह बदलाव के दौर से गुजर रही है। संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करने की मशक्कत जारी है। पर सवाल यह है कि क्या यह मशक्कत नतीजा दे पाएगी? कांग्रेस जैसी देश की सबसे पुरानी पार्टी के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती अपने ही अस्तित्व को पुनः परिभाषित करने की है। जब 139 वर्ष पुरानी यह पार्टी, महज़ 45 साल पुराने भाजपा जैसे संगठन से पिछड़ती दिखाई देती है, तो यह केवल संगठन की कमजोरी नहीं, वैचारिक क्षीणता की कहानी भी कहती है।

कहा जाता है, भाजपा मजबूत है। पर सच यह है कि भाजपा मजबूत नहीं, सक्रिय है। और कांग्रेस निष्क्रिय नहीं, बल्कि अव्यवस्थित है। दोनों के बीच असल फर्क वैचारिकता का है। भाजपा के कार्यकर्ता ‘विचारधारा’ के अनुयायी हैं, जबकि कांग्रेस के भीतर अब ‘व्यक्ति’ ही विचारधारा बन चुका है। यही कांग्रेस की सबसे बड़ी विडंबना है, जहां लोग विचार से नहीं, व्यक्ति से जुड़ते हैं; और व्यक्ति के डगमगाते ही पाला बदल लेते हैं।

कभी नेहरू, पटेल और आज़ाद की विचारभूमि रही कांग्रेस, अब नेताओं के चाटुकारों का अड्डा बनकर रह गई है। सत्ता जिनके लिए साधन नहीं, उद्देश्य बन चुकी है, वे ही संगठन की जड़ें खोद रहे हैं। यह बीमारी नई नहीं, लेकिन अब यह कैंसर बन चुकी है। कांग्रेस में वर्षों से पद पर बैठे लोग, जो खुद को ‘विचारधारात्मक कांग्रेसी’ कहते हैं, वास्तव में सत्ता के पिछलग्गू हैं। वे वैचारिक ऊर्जा नहीं, बल्कि अवसरवादी हवा के रुख से चलते हैं।

हनुमानगढ़ की राजनीति इसका जीता-जागता उदाहरण है। पिछले नगरपरिषद चुनाव में जनता ने कांग्रेस को जिताया, सर्वाधिक सीटें दीं। लेकिन बाद में पूरा बोर्ड एक व्यक्ति के हाथ चला गया। यही नहीं, बीजेपी भी इस ‘खेल’ में बह गई। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी ने हथियार डाल दिए, मगर जनता ने नहीं। सवाल यह नहीं कि जनता कांग्रेस से नाराज़ है या नहीं, सवाल यह है कि क्या कांग्रेस के पास जनता के विश्वास को साधने वाले सच्चे कार्यकर्ता हैं?

भाजपा और कांग्रेस में एक और बड़ा फर्क है, वैचारिक अनुशासन का। भाजपा में अब भी हजारों ऐसे कार्यकर्ता हैं जो ‘संगठन सर्वाेपरि’ के मंत्र पर चलते हैं। जबकि कांग्रेस के पास है, ‘भ्रम में जीने वाले स्वयंभू नेताओं’ की भीड़, जो बिना बूथ जीतने की क्षमता के खुद को प्रदेश स्तर का नेता समझते हैं। ऐसे में संगठन खड़ा होगा भी तो कैसे?

भाजपा ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को “पप्पू” कहकर एक नैरेटिव तैयार किया, जिसे मीडिया और सोशल मीडिया पर सुनियोजित ढंग से फैलाया गया। यह अभियान असरदार साबित हुआ। लेकिन समय के साथ राहुल गांधी ने धैर्य से जवाब दिया, संघर्ष से, संवाद से, सड़क से। जबकि उनके अपने ही साथी मौन रहे। राहुल गांधी आज भी सत्ता की बुराइयों से बेखौफ होकर संघर्ष कर रहे हैं, पर उनके साथ कितने कांग्रेसी हैं, यह प्रश्न कांग्रेस के आत्ममंथन के केंद्र में होना चाहिए।

आज सोशल मीडिया जनमत का सबसे सशक्त मंच है। लेकिन आप कांग्रेस के अधिकांश नेताओं की प्रोफाइल देख लीजिए, वे न पार्टी की नीतियों का प्रचार करते हैं, न सत्ता की गलतियों पर कोई ठोस विमर्श। जब विचारधारा डिजिटल स्पेस में अनुपस्थित हो, तो जमीनी मजबूती की उम्मीद कैसे की जाए?

कांग्रेस को अब बड़े स्तर पर विचार और व्यवहार दोनों में परिवर्तन की जरूरत है। वरिष्ठ नेताओं के चाटुकारों को पद देना बंद करना होगा। संगठन को उन युवाओं के हाथ सौंपना होगा जो वैचारिक रूप से निष्ठावान हैं, जो सोशल मीडिया पर भी निर्भीकता से अपनी बात रखते हैं। कांग्रेस को यह तय करना होगा कि वह नेता आधारित पार्टी रहना चाहती है या विचार आधारित आंदोलन बनना चाहती है।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में सभी दलों की मजबूती आवश्यक है। भाजपा, कांग्रेस, वामदल, क्षेत्रीय दल, सभी की। क्योंकि लोकतंत्र तभी जीवंत रहता है, जब विपक्ष सशक्त हो। भाजपा संगठनात्मक अनुशासन का प्रतीक बन चुकी है, वामपंथ अपनी विचारभूमि पर अडिग है, लेकिन कांग्रेस अब भी दिशा तलाश रही है।

वक्त आ गया है कि कांग्रेस अपने ‘संगठन सृजन अभियान’ को कागजों से निकालकर जमीन पर उतारे। चाटुकारिता नहीं, समर्पण को पहचान का आधार बनाए। क्योंकि अगर विचार ही खो गया, तो कांग्रेस का नाम बचेगा जरूर, पर उसकी आत्मा नहीं। और जब आत्मा खो जाए, तो शरीर चाहे जितना पुराना या विशाल क्यों न हो, टिकता नहीं, विलुप्त हो जाता है। बेशक।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीट एडिटर हैं


