



गोपाल झा.
जन्म और मृत्यु के बीच फैला यह छोटा-सा अंतराल ही हमारा जीवन है। यह वही जगह है जहाँ हम रोते-हँसते हैं, सीखते-खोते हैं, उम्मीदें बोते और निराशाएँ काटते हैं। समय पूर्व निर्धारित है, मगर घड़ी किस तारीख पर रुक जाएगी, इसका अनुमान किसी इंसान की पहुँच से बाहर है। यही कारण है कि हम अपनी जन्मतिथि तो बड़ी सहजता से बता देते हैं, लेकिन मृत्यु की तारीख हमेशा एक अनलिखा खाली पन्ना बनी रहती है। मौत अगले ही क्षण भी दस्तक दे सकती है और दशकों की दूरी पर भी खड़ी हो सकती है। जन्म के साथ उसका निश्चित होना जितना सरल सत्य है, उतना ही कठिन है उसे सच में महसूस कर पाना।

यही असल उलझन है, जब मंज़िल पहले से तय है, तो रास्ते का सही अर्थ हम पकड़ क्यों नहीं पाते? जीवन को समझ पाना अलग बात है, लेकिन उसे आत्मा की गहराई में महसूस करना बिल्कुल अलग अनुभव है। यदि कोई सचमुच मृत्यु की निकटता को महसूस कर ले, तो वह जीवन को भय नहीं, बल्कि आनंद की आँखों से देखने लगता है। हर सांस एक उपहार लगती है, हर पल ईश्वर का दिया अवसर और हर संबंध एक सौभाग्य जैसा लगता है।

सभी धर्म यही कहते हैं कि पहले इहलोक को ठीक करो, कर्म, व्यवहार, नैतिकता और संवेदना को। परलोक की फिक्र उसके बाद अपने आप संभल जाएगी। मगर हमारी प्रवृत्ति उलट चलती है। हम वर्तमान को छोड़कर उस लोक की चिंता में डूब जाते हैं जिसे किसी ने देखा नहीं। अदृश्य भविष्य को लेकर इतनी परेशानियाँ पाल लेते हैं कि दिखाई दे रहा वर्तमान ही धुंधला पड़ जाता है। प्रश्न यह है कि जिस जीवन को हाथ में लेकर हम बैठे हैं, उसे आनंद से भरने का साहस क्यों नहीं जुटा पाते?

मृत्यु अवश्यंभावी है, इससे डरना कैसा? कोई इसे टाल नहीं सकता, तो इसे लेकर घबराहट किसलिए? बल्कि कृतज्ञ होना चाहिए कि हमें इस दुनिया को देखने का, महसूस करने का, सीखने का अवसर मिला। प्रकृति की विराटता को समझने का मौका मिला। रिश्तों की गर्माहट मिली और समाज का विस्तृत अनुभव भी। इस सफर में तरह-तरह के लोग मिलते हैं, कुछ अपने जो समय आने पर पराये लग जाते हैं, और कुछ पराये जो वक्त पर अपनेपन का गाढ़ा रंग दिखा देते हैं। यही मिश्रण जीवन को दिलचस्प बनाता है।

जीवन की सुंदरता तभी टिकती है जब इंसान अपनी भागीदारी समझे और जिम्मेदारियाँ निभाए। हर भूमिका, हर कर्तव्य यदि ईमानदारी से निभाया जाए तो मन में कोई ग्लानि नहीं पलती। आत्मा को संतोष मिलता है कि प्रयास सच्चा था। कई सामाजिक समस्याएँ भी आधी रह जाएँ, यदि हर व्यक्ति अपने हिस्से का काम ईमानदारी से निभाए। दिक्कत तब होती है जब लोग अपनी जिम्मेदारी अधूरी छोड़कर दूसरों से उम्मीदें लगाए रहते हैं। तुलना और शिकायत जीवन का रस खींच लेती है और यात्रा को बोझ बना देती है।

मनुष्य उस यात्री की तरह है जो रेल में बैठा है और पता नहीं कि किस स्टेशन पर उसका टिकट समाप्त हो जाएगा। यात्रा चलती रहती है, पर मंज़िल अज्ञात है। यही अनिश्चितता जीवन को कीमती बनाती है। यदि याद रहे कि हर क्षण अंतिम हो सकता है, तो न छोटी-छोटी बातों में उलझाव रहेगा और न ही अहंकार का बोझ। जिसने हमें भेजा है, वह जब चाहे वापसी बुलावा भेज सकता है। इस सत्य को स्वीकार कर लेने वाला इंसान तेरा-मेरा, छोटे-बड़े, अपने-पराये जैसी उलझनों से मुक्त होकर सरल, सच्चा और उत्साहपूर्ण जीवन जीता है।
कृष्ण बिहारी ‘नूर’ की पंक्तियाँ इसी सच्चाई को बेहद सहजता से खोलती हैं,
ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं,
और क्या जुर्म है पता ही नहीं।
ज़िंदगी मौत तेरी मंज़िल है,
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं।
आखिरकार जीवन का रहस्य सरल है, इसे महसूस करने की जरूरत है। मृत्यु की पदचाप को समझने की आवश्यकता है। डर के लिए नहीं, बल्कि जीवन को बेहतर देखने के लिए। जब इंसान को यह अहसास हो जाता है कि उसका समय सीमित है, तब जीवन का हर क्षण भरपूर चमकने लगता है। यही समझ जीवन को सार्थक बनाती है और मृत्यु को सहज। यही वह रास्ता है जो हमें संतोष, जिम्मेदारी और आनंद के साथ जीना सिखाता है। इसलिए तो हम कहते हैं, समय कम है। आइए, कुछ बेहतर करते हैं।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं



