…तो बढ़ सकते हैं पेट्रोल-डीजल के दाम!

डॉ. संतोष राजपुरोहित.
वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में इज़रायल और ईरान के बीच बढ़ते तनाव ने अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में तेजी लाने की संभावना को जन्म दिया है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह संकट मध्य-पूर्व के ऊर्जा आपूर्ति श्रृंखला को प्रभावित कर सकता है, जिसका व्यापक असर विश्व अर्थव्यवस्था पर भी देखने को मिल सकता है। भारत, जो अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए लगभग 85 फीसद कच्चे तेल का आयात करता है, इस संकट से अछूता नहीं रह सकता। हाल ही में प्रकाशित समाचार के अनुसार, जब पहले कच्चे तेल की कीमतें 60 डॉलर प्रति बैरल तक गिर गई थीं, तब भारत सरकार ने उस लाभ को सीधे उपभोक्ताओं तक नहीं पहुँचने दिया था। इसका अर्थ यह है कि कीमतों में गिरावट के बावजूद उपभोक्ता मूल्य स्थिर बने रहे। इस रणनीति के पीछे सरकार का उद्देश्य राजकोषीय संतुलन बनाए रखना था। अब जबकि संकट के चलते तेल की कीमतें 80 डॉलर प्रति बैरल के ऊपर पहुँचने लगी हैं, तो इस बार कीमतों में उछाल का प्रभाव अंततः उपभोक्ताओं पर भी पड़ेगा।
सबसे पहला प्रभाव पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की खुदरा कीमतों पर पड़ेगा। हालाँकि भारतीय तेल कंपनियाँ सरकारी नीतियों के अनुसार कीमतों में परिवर्तन करती हैं, फिर भी अगर कच्चे तेल की कीमतें लगातार उच्च बनी रहीं तो सरकार के पास विकल्प सीमित होंगे। परिणामस्वरूप, उपभोक्ता स्तर पर पेट्रोल-डीजल महंगे हो सकते हैं। दूसरा प्रभाव परिवहन लागतों में वृद्धि के रूप में सामने आएगा। भारत में अधिकांश माल परिवहन सड़क मार्ग से होता है और डीजल इसके लिए प्रमुख ईंधन है। डीजल की कीमतें बढ़ने से मालभाड़ा बढ़ेगा, जो खाद्य वस्तुओं सहित अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों को भी प्रभावित करेगा।
भारतीय रिज़र्व बैंक मुद्रास्फीति को काबू में रखने के लिए लगातार सतर्क रहता है। कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी से थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक दोनों में वृद्धि हो सकती है। आरबीआई को यदि मुद्रास्फीति का दबाव महसूस हुआ तो वह ब्याज दरों में वृद्धि कर सकता है, जिससे ऋण महंगे हो सकते हैं और आर्थिक विकास की गति कुछ धीमी पड़ सकती है।


चालू खाता घाटे पर प्रभाव
भारत का चालू खाता घाटा कच्चे तेल के आयात पर अत्यधिक निर्भर है। तेल की बढ़ती कीमतों से आयात बिल बढ़ेगा जिससे सीएडी में वृद्धि होगी। इसके चलते भारतीय रुपये पर दबाव आ सकता है और डॉलर के मुकाबले रुपये में गिरावट देखी जा सकती है। इससे विदेशों से आयातित अन्य वस्तुएँ भी महँगी हो सकती हैं।
नीतिगत विकल्प और तैयारी
भारत सरकार के पास इस परिस्थिति से निपटने के लिए कई नीतिगत विकल्प उपलब्ध हैं
आयात विविधीकरण: भारत अपनी ऊर्जा आपूर्ति में विविधीकरण की नीति अपना रहा है। यदि मध्य-पूर्व से आपूर्ति बाधित होती है तो अमेरिका, रूस, ब्राजील जैसे अन्य स्रोतों से आयात बढ़ाया जा सकता है।
णनीतिक पेट्रोलियम भंडार: भारत के पास एसपीआर है जिसका उपयोग आपातकालीन स्थिति में तेल आपूर्ति को स्थिर रखने के लिए किया जा सकता है।
वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों का प्रोत्साहन: दीर्घकालीन दृष्टि से सरकार नवीकरणीय ऊर्जा जैसे सौर, पवन ऊर्जा को बढ़ावा दे रही है ताकि जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम की जा सके।


कर संरचना में लचीलापन: सरकार कर ढाँचे में समयानुकूल संशोधन कर उपभोक्ताओं को राहत प्रदान कर सकती है।
वर्तमान में भले ही तेल की कीमतों में हुई वृद्धि का तात्कालिक असर उपभोक्ता कीमतों पर न दिखाई दे, परंतु यदि इज़रायल-ईरान संकट लंबा चलता है और तेल 80 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर बना रहता है तो महँगाई, चालू खाता घाटा और आर्थिक विकास सभी पर इसका असर अवश्य पड़ेगा। ऐसे में सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक को सतर्क रहकर समय पर नीति हस्तक्षेप करना होगा ताकि अर्थव्यवस्था को झटके से बचाया जा सके। आम उपभोक्ताओं के लिए यह समय ऊर्जा बचत और वैकल्पिक ऊर्जा के प्रयोग को बढ़ावा देने का उपयुक्त अवसर है।
-लेखक भारतीय आर्थिक परिषद के सदस्य हैं

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