






डॉ. एमपी शर्मा.
मानव सभ्यता के इतिहास पर नज़र डालें तो युद्ध और शांति की कहानी हमेशा साथ-साथ चलती रही है। कभी धर्म और अधर्म के नाम पर, कभी साम्राज्य विस्तार के लिए, कभी जातीय विद्वेष से, और कभी केवल सत्ता की लालसा से युद्ध हुए। हर युद्ध के बाद लाखों निर्दाेष मारे गए, संस्कृतियाँ उजड़ गईं और पीढ़ियाँ तबाह हो गईं। प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में युद्ध शांति का मार्ग प्रशस्त करता है?

त्रेता युग में भगवान राम ने रावण को समझाने के लिए अंगद को दूत बनाकर भेजा। द्वापर में स्वयं श्रीकृष्ण दूत बनकर हस्तिनापुर गए, परंतु दोनों ही बार शांति की वार्ता असफल रही और अंततः युद्ध हुआ। युद्धों में विजय तो मिली, पर भारी जनहानि और विध्वंस के बाद। महाभारत के युद्ध में तो करोड़ों योद्धा मारे गए, और अंत में हस्तिनापुर में बस कुछ गिने-चुने योद्धा ही बचे। यह शांति नहीं, बल्कि विनाश का मूक सन्नाटा था।

आधुनिक युग के युद्धप्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध ने करोड़ों लोगों की जान ली, परंतु क्या इससे स्थायी शांति आई? द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया दो खेमों, अमेरिका और सोवियत संघ में बंट गई और शीत युद्ध शुरू हुआ।

अमेरिका-वियतनाम युद्ध ने वियतनाम को दशकों तक बर्बादी में झोंक दिया। भारत-पाकिस्तान, भारत-चीन युद्ध में दोनों देशों ने अपार हानि झेली, पर स्थायी समाधान आज भी अधूरा है। रूस-यूक्रेन और फिलिस्तीन-इसराइल संघर्ष आज भी रक्तपात और असुरक्षा की ज्वाला को भड़का रहे हैं। इतिहास बताता है कि युद्ध अस्थायी समाधान तो दे सकते हैं, लेकिन स्थायी शांति कभी स्थापित नहीं कर सकते।

आज का यथार्थ यह है कि बड़े देश शांति की बातें तो करते हैं, पर हथियारों का निर्माण बढ़ाते हैं और उन्हें बेचकर दूसरे देशों को युद्ध की ओर धकेलते हैं। विश्व परमाणु युद्ध के कगार पर खड़ा है। यह प्रश्न और गंभीर हो जाता है, क्या हथियारों के ढेर पर बैठकर शांति स्थापित हो सकती है?

बड़ा सवाल है, फिर शांति कैसे स्थापित हो? जवाब मुश्किल नहीं। युद्ध के पहले और युद्ध के बाद, हर समस्या का स्थायी हल केवल बातचीत से निकलता है। इतिहास गवाह है कि अंततः मेज़ पर बैठकर ही समझौते होते हैं। जब तक अन्याय, शोषण और असमानता रहेगी, युद्ध की जड़ें भी रहेंगी। शांति के लिए सामाजिक-आर्थिक न्याय आवश्यक है।

महात्मा गांधी ने दिखाया कि बिना युद्ध के भी आज़ादी पाई जा सकती है। यह रास्ता कठिन है, लेकिन स्थायी है। जलवायु संकट, आतंकवाद, गरीबी जैसे मुद्दे किसी एक देश के नहीं हैं। शांति के लिए राष्ट्रों को प्रतिस्पर्धा से हटकर सहयोग की ओर बढ़ना होगा। जब तक धर्म, जाति, भाषा और सीमा से ऊपर उठकर इंसान को इंसान नहीं माना जाएगा, तब तक शांति केवल एक सपना ही रहेगी। युद्ध शांति का द्वार नहीं है, बल्कि विनाश का। युद्ध के बाद जो सन्नाटा मिलता है, वह शांति नहीं, बल्कि थकी हुई सभ्यता का शोकगीत होता है। वास्तविक शांति तभी संभव है जब दुनिया के नेता हथियारों के बजाय विचारों और मानवता की ताक़त को बढ़ाएँ।
-लेखक सामाजिक चिंतक, सीनियर सर्जन और आईएमए राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं


