



गोपाल झा.
जोधपुर के कुड़ी भगतासनी थाने की घटना किसी साधारण रोज़मर्रा की तकरार नहीं, लोकतंत्र की बुनियाद को कुरेद देने वाली घटना है। वकील और पुलिस, दोनों ही कानून की राह को सुरक्षित रखने वाले स्तंभ माने जाते हैं। जब यही स्तंभ आपस में टकराते दिखाई दें, वह भी धक्का-मुक्की और शक्ति-प्रदर्शन के रूप में, तो यह मान लेना चाहिए कि व्यवस्था की नसों में कहीं न कहीं सूजन बढ़ चुकी है। थानाधिकारी हमीर सिंह और रीडर नरेंद्र सिंह का निलंबन उसी सूजन पर रखा गया पहला मरहम है। वकीलों की तरफ उत्सव-सा माहौल और पुलिसकर्मियों की तरफ ‘हमारा हमीर और हमारा जमीर सही है’ जैसे स्टेटस, यह पूरा प्रसंग एक छोटे से धमाके की तरह है, जिसकी गूंज पूरे तंत्र में फैल गई है।

राजस्थान पुलिस को वर्षों से शांत, संयत और संतुलित बल के रूप में जाना जाता रहा है। इस छवि का जन्म किसी एक आदेश या किसी एक घटनाक्रम से नहीं हुआ, यह दर्जनों पीढ़ियों की मेहनत, त्याग और अनुशासन का फल है। इसलिए जब वही पुलिस अचानक उत्तेजित दिखने लगे, सोशल मीडिया पर व्यंग्य-प्रत्युत्तर देने लगे, और छोटी-छोटी बातों पर अपना आपा खोने लगे तो चिंता होना स्वाभाविक है। हाईकोर्ट की फटकार ने इसी खतरे की ओर संकेत किया है कि जनता से संवाद करते हुए पुलिस का स्वभाव ‘कानून का प्रतिनिधि’ होना चाहिए, ‘कानून का मालिक’ नहीं। शायद यही वजह है कि अदालत ने पुलिसकर्मियों को दोबारा ‘व्यवहार’ सिखाने की जरूरत महसूस की।

लोकतंत्र का अर्थ ही यही है कि जनता सर्वाेपरि है। पुलिस, प्रशासन, न्यायपालिका, ये सभी जनता के सेवक हैं, मालिक नहीं। जनता टैक्स देती है, राजकोष भरती है, पेंशन-भत्ते बनाती है, यानी पूरा तंत्र जनता के श्रम से चलता है। ऐसे में यदि वही तंत्र जनता को ही अपमानित करने, डराने या दबाने लगे तो लोकतंत्र सिर्फ परिभाषा बनकर रह जाएगा। वकील को धक्का देते हुए दिखने वाला वीडियो इस असंतुलन की चुभने वाली मिसाल है। अगर वकील, जो कानून का जानकार है, ऐसा व्यवहार झेल सकता है, तो आम आदमी की स्थिति की कल्पना करना मुश्किल नहीं।

लेकिन तस्वीर का दूसरा रंग भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। पुलिस महकमे पर भ्रष्टाचार के आरोप नए नहीं, पर भ्रष्टाचार तो हर क्षेत्र में है, साहित्य से लेकर सत्ता तक, अस्पताल से लेकर अदालत तक। पुलिस पर उंगली उठाना आसान है क्योंकि वह सबसे ज्यादा दिखाई देती है। पर वास्तव में उसकी कठिनाई कहीं अधिक गहरी है। कम नफरी, अनगिनत मुकदमे, दिन-रात की ड्यूटी, वीआईपी सुरक्षा का दबाव, परिवार के लिए समय का अभाव। यह सब एक साधारण मनुष्य को धीरे-धीरे भीतर से खाली कर देता है। खाली मन जब अत्यधिक जिम्मेदारी और कम सराहना का भार ढोता है, तब वह कठोर हो जाता है और कुंठित भी। और जब कोई उसे कानून की किताब दिखाता है, वह भड़क उठता है, क्योंकि वही तो उसकी रोज़ की पीड़ा का आईना होता है।

यही वजह है कि समाधान सिर्फ सज़ा नहीं, सुधार भी होना चाहिए। पुलिस को इंसान समझकर उसकी जरूरतें समझनी होंगी। 24 घंटे की ड्यूटी से राहत, छुट्टियाँ, मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान, परिवार के साथ समय, यह सब केवल सुविधाएँ नहीं, मानवीय जरूरतें नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक पुलिस व्यवस्था की अनिवार्य शर्तें भी हैं। एक शांत, संतुलित और भावनात्मक रूप से स्वस्थ पुलिसकर्मी ही समाज में स्थिरता ला सकता है।

हमीर सिंह के मामले में निलंबन स्वाभाविक और अपेक्षित निर्णय था, क्योंकि वर्दी की मर्यादा उससे यही मांग करती थी। परंतु उसके समर्थन में उठ रही खामोश लहर अनुशासन के लिए खतरे का संकेत है। यदि पुलिस बल खुद अपनी गलती को गलती मानने को तैयार न हो, तो कानून की पूरी संरचना ढहने लगती है। वर्दी का सम्मान तभी टिकेगा, जब वर्दी के भीतर बैठा व्यक्ति अपनी सीमाएँ समझे।

राजस्थान की शांति और संवेदनशीलता पूरे देश के लिए उदाहरण रही है। यह सिर्फ पुलिस की जिम्मेदारी नहीं, हम सबकी है कि इसे बनाए रखें। संयम, संवाद और संतुलन, अगर ये तीनों बने रहें तो किसी घटना को संकट बनने की जरूरत नहीं पड़ती। लोकतंत्र एक पेड़ की तरह है, मज़बूत तभी रहता है जब उसकी जड़ें सामूहिक जिम्मेदारी से सींची जाएँ।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं


