




डॉ. संतोष राजपुरोहित.
भारत की आर्थिक प्रगति के केंद्र में उसकी विशाल कार्यशील जनसंख्या है, जो देश के निर्माण और विकास की रीढ़ है। परंतु यह जनशक्ति दो वर्गों में बंटी हुई है। एक वह, जिसे संगठित क्षेत्र का संरक्षित कवच प्राप्त है, और दूसरी वह, जो असंगठित क्षेत्र की असुरक्षा में संघर्षरत है। एक ओर जहां वेतन आयोगों के माध्यम से संगठित कर्मियों की आय और जीवन स्तर में नियमित सुधार किया जाता है, वहीं दूसरी ओर असंगठित श्रमिक आज भी न्यूनतम वेतन, सामाजिक सुरक्षा और सम्मानजनक जीवन की आकांक्षा में जीते हैं। यह दोहरी व्यवस्था न केवल आर्थिक असमानता को जन्म देती है, बल्कि सामाजिक असंतुलन को भी बढ़ावा देती है। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि नीतिगत विमर्श वेतन आयोग की सीमाओं से आगे जाकर असंगठित वर्ग को भी समान अवसर और गरिमा प्रदान करने की दिशा में आगे बढ़े।
भारत की कार्यशील जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न प्रकार के श्रम में संलग्न है, जिनमें से अधिकांश असंगठित क्षेत्र में कार्य करते हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार, देश की कुल कार्यशील जनसंख्या का लगभग 90 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है, जबकि मात्र 10 प्रतिशत श्रमिक संगठित क्षेत्र में आते हैं। यह असमानता न केवल आय और सुरक्षा में अंतर को दर्शाती है, बल्कि सामाजिक असमानता की जड़ें भी उजागर करती है।
संगठित क्षेत्र में आने वाले कर्मचारियों को निश्चित वेतन, सामाजिक सुरक्षा, पेंशन, स्वास्थ्य बीमा, छुट्टियाँ और सेवा शर्तों की स्थिरता प्राप्त होती है। इनमें सरकारी कर्मचारी, सार्वजनिक उपक्रमों में कार्यरत कर्मी, बैंक कर्मचारी, शिक्षण संस्थानों के स्थायी शिक्षक आदि शामिल हैं। इनकी वेतन व्यवस्था को नियमित रूप से वेतन आयोगों के माध्यम से पुनर्निर्धारित किया जाता है। वर्ष 2016 में सातवां वेतन आयोग लागू किया गया, जिससे लगभग 50 लाख केंद्रीय कर्मचारियों और 58 लाख पेंशनभोगियों के साथ साथ राज्य कर्मचारियों को प्रत्यक्ष लाभ हुआ।
इसके विपरीत असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों को किसी प्रकार की वेतन स्थिरता या सामाजिक सुरक्षा प्राप्त नहीं होती। खेतिहर मजदूर, निर्माण श्रमिक, घरेलू कामगार, रिक्शा चालक, स्ट्रीट वेंडर, दिहाड़ी मजदूर आदि इस वर्ग में आते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की औसत मासिक आय ₹10,000 से भी कम है। कोविड-19 महामारी के दौरान इस वर्ग की आर्थिक असुरक्षा और भी स्पष्ट रूप से सामने आई, जब लाखों श्रमिक बिना आय और सहायता के अपने गाँवों की ओर पलायन करते देखे गए।
सरकार ने असंगठित क्षेत्र के लिए कुछ प्रयास किए हैं जैसे ‘ई-श्रम पोर्टल’ की शुरुआत, जिसमें अब तक लगभग 30 करोड़ से अधिक श्रमिकों का पंजीकरण हो चुका है। इसका उद्देश्य श्रमिकों को सरकारी योजनाओं से जोड़ना और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है, किंतु इन प्रयासों का वास्तविक प्रभाव अभी सीमित है।
वहीं, अब कर्मचारियों और पेंशनभोगियों द्वारा आठवें वेतन आयोग की माँग तेज हो रही है। यदि यह आयोग 2026 में लागू होता है, तो अनुमानतः इससे केंद्रीय सरकार पर लगभग 2 लाख करोड़ रूपये का वार्षिक व्यय बढ़ सकता है। इसमें न्यूनतम वेतनमान की पुनर्समीक्षा, महँगाई भत्ते का समायोजन, और सेवा शर्तों में सुधार शामिल हो सकते हैं। इससे संगठित क्षेत्र में कार्यरत कर्मियों की जीवन गुणवत्ता में निश्चित रूप से सुधार होगा।
हालांकि, यह भी ध्यान देने योग्य है कि सरकार का समग्र वित्तीय व्यय पहले ही सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी ढांचे पर केंद्रित है। ऐसे में वेतन आयोग के नए सिफारिशों के कार्यान्वयन से राज्य और केंद्र सरकारों पर राजकोषीय बोझ बढ़ सकता है। लेकिन दूसरी ओर, इससे खपत और आर्थिक गतिविधियों में वृद्धि भी हो सकती है, जिससे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से रोजगार सृजन को बल मिलेगा।
देश की समावेशी आर्थिक वृद्धि के लिए यह आवश्यक है कि असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को भी संगठित क्षेत्र के समकक्ष सुविधाएँ, सुरक्षा और गरिमा प्रदान की जाए। केवल वेतन आयोग लागू कर देना पर्याप्त नहीं होगा, जब तक कि समाज के सबसे कमजोर तबकों को भी संरक्षित और समर्थ नहीं बनाया जाता। आर्थिक नीतियों का उद्देश्य केवल कुछ प्रतिशत कर्मचारियों को ही लाभ पहुँचाना नहीं होना चाहिए, बल्कि उससे अधिक व्यापक श्रमिक वर्ग को समुचित अवसर और सुरक्षा देना चाहिए।
-लेखक भारतीय आर्थिक परिषद के सदस्य हैं






