




गोपाल झा.
साल 2018 का राजस्थान विधानसभा चुनाव। नामचीन अखबारों पर अचानक आरोप लगे, पेड न्यूज। आरोप उस अखबार पर भी था, जिसके संपादक खुद जिला स्तरीय पेड न्यूज रोकथाम समिति के सदस्य थे। जिला निर्वाचन अधिकारी और जनसम्पर्क विभाग अधिकारी ने बड़ी सहजता से शिकायत पत्र पर उनके हस्ताक्षर करा लिए। मासूमियत में किए गए उस हस्ताक्षर ने मानो आफत बुला ली। जैसे कह दिया हो, आ बैल, मुझे मार।

मामला जयपुर से होते हुए दिल्ली तक जा पहुंचा। भारतीय प्रेस परिषद ने सुनवाई तय की। उस समय मुझे उस अखबार की पैरवी का दायित्व सौंपा गया। मैंने खबरों को गौर से पढ़ा, वरिष्ठ अधिवक्ता शंकर सोनी से कानूनी पक्ष समझा और दिल्ली रवाना हुआ।

दिल्ली के उस दिन के नजारे आज भी आंखों में ताजा हैं। उस दिन राजस्थान के 13 अखबारों पर लगे आरोपों की सुनवाई होनी थी। कुछ संपादक ऐसे भी थे जो खुद भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य थे। यह अलग बात है कि जब उनके अखबार पर सुनवाई शुरू हुई तो वे कक्ष से बाहर चले गए। खैर, पहला नंबर उसी अखबार का था जिसकी पैरवी मेरे पास थी।

भारतीय प्रेस परिषद के चेयरमैन ने बिना किसी भूमिका के सीधा सवाल दाग दिया, ‘आपके उम्मीदवार जीत गए क्या?’ यह सवाल मेरे दिल में तीर की तरह लगा। मैंने तपाक से कहा, ‘सर, अगर आपने पहले ही मान लिया कि अखबार ने पेड न्यूज छापी है, तो फिर फैसला सुना दीजिए। मुझे सुने बिना ही आपने निष्कर्ष निकाल लिया?’ कमरे में सन्नाटा-सा छा गया। चेयरमैन मुस्कुराए, बाकी सदस्य, जो खुद अखबारों के संपादक थे, मुझे घूरने लगे। तभी चेयरमैन बोले-‘खबर पढ़कर सुनाइए।’
मैंने पूरी खबर पढ़ी। चेयरमैन ने चार-पांच सवाल पूछे। आखिर में मैंने दृढ़ता से कह दिया, ‘सर, अगर यह पेड न्यूज साबित कर दिया, तो मैं पत्रकारिता छोड़ दूंगा।’

उस पल चेयरमैन मेरी ओर देख रहे थे, बाकी सदस्य एक स्वर में कह उठे, ‘सचमुच, इसे पेड न्यूज नहीं कहा जा सकता।’ हमारे पक्ष में आम सहमति थी। चेयरमैन ने कुछ न कहा, बस पास बैठे टाइपराइटर को आदेश लिखने के लिए कहा। वह पल मेरे लिए आत्मसंतोष से भरा था, पत्रकारिता की सर्वोच्च संस्था भारतीय प्रेस परिषद में मेरी पहली जीत थी। यह अलग बात है कि फिर कभी मौका नहीं मिला।

खैर। आज उस घटना को याद करने का कारण है, सरकार फेक न्यूज पर नियंत्रण के लिए नया कानून बना रही है। डर यही है कि जैसे पेड न्यूज मामले में असली दोषियों पर कभी कार्रवाई नहीं हुई और निर्दाेषों को प्रताड़ित किया गया, वैसा ही फेक न्यूज के नाम पर न हो।

हम किसी कानून के खिलाफ नहीं। पर शर्त यह है कि सच और झूठ की पहचान साफ हो। यह न हो कि सरकार की ‘हाँ में हाँ’ मिलाना ही पत्रकारिता की परिभाषा बन जाए। अगर सरकार को आईना दिखाना ही ‘फेक न्यूज’ कहलाने लगेगा, तो लोकतंत्र का चौथा खंभा टूट जाएगा।

उस दिन परिषद में मिली जीत ने मुझे यह सिखाया था कि सच की ताकत सबसे बड़ी है। पर आज डर है कि यह ताकत कहीं कानूनों के बोझ तले दब न जाए। अगर ऐसा हुआ तो जनता कमजोर होगी, सरकार तानाशाह बनेगी और हमारा प्यारा वतन उन कतारों में खड़ा मिलेगा, जहां पहले बांग्लादेश था और अब नेपाल है।

बेशक, सरकार कानून बनाए, हम इसका स्वागत करते हैं। मगर पहले फेक न्यूज की परिधि और स्पष्ट परिभाषा तय हो, फिर सजा और जुर्माने की बात हो। यही लोकतंत्र को बचाने का रास्ता है। बाकी, राम जाने।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं



