



डॉ. अर्चना गोदारा.
‘ज़रा-ज़रा बहकता है, महकता है’, यह गीत भले प्रेम की अनुभूति को व्यक्त करता हो, पर आज की डिजिटल दुनिया में यही हल्की-सी ‘महक’ एक नए सकारात्मक परिवर्तन की वजह बन रही है। सोशल मीडिया के विशाल समुद्र में जहां नकारात्मकता, प्रतिस्पर्धा, ट्रोलिंग और मानसिक तनाव की लहरें लगातार उठती रहती हैं, वहीं एक नई पीढ़ी धीमे लेकिन मजबूत कदमों से अच्छाई की खुशबू फैला रही है। इस डिजिटल युग में जब हर किसी के हाथ में मोबाइल है और हर सेकंड लाखों पोस्ट दुनिया में घूमती हैं, ऐसे समय में किसी का मुस्कुराना, किसी के दर्द को समझना, किसी अनजान को हिम्मत देकर आगे बढ़ाना, ये सब केवल एक बटन दबाने भर से संभव हो रहा है। यही बदलाव है जिसे हम ‘डिजिटल पॉजिटीविटी मूवमेंट’ कह सकते हैं। एक ऐसा आंदोलन जो किसी संस्था, नियम, या दबाव से नहीं, बल्कि मन की सच्चाई और इंसानियत की पुकार से जन्मा है। यह आंदोलन उन लोगों का है जो मानते हैं कि सोशल मीडिया सिर्फ दिखावे की जगह नहीं, बल्कि भावनाओं, समझ और सकारात्मकता की ऊर्जा से भरा एक जीवंत संसार भी बन सकता है।

डिजिटल पॉज़िटिविटी मूवमेंट की खूबसूरती यह है कि इसे आगे बढ़ाने वाले साधारण लोग हैं, लेकिन उनके असर असाधारण हैं। कोई अपनी कहानी खुलकर बताकर दूसरे को बताता है कि दर्द शर्म की चीज़ नहीं, बल्कि उसे साझा करने का साहस ही असली शक्ति है। कोई अपने वीडियो में दिखाता है कि एक भूखे को खाना खिलाना सिर्फ सामाजिक कर्तव्य नहीं, मानवीय गर्माहट की एक छोटी लौ है, जो देखने वालों के भीतर भी रोशनी जगा देती है। कोई महिला अपनी टूटन को एक किताब की तरह खोलकर दुनिया को बताती है कि हर घाव में एक संदेश छिपा है और हर अंधेरा किसी नई सुबह की ओर ले जा सकता है। कॉलेज के युवा छोटे-छोटे वीडियो बनाकर, अनाम पोस्ट लिखकर, और कभी-कभी सिर्फ एक लाइन ‘यू मैटर’ लिखकर भी किसी के दिल से बोझ हटाने का काम कर रहे हैं। इन लोगों का चेहरा जरूरी नहीं कि दुनिया जाने, उनके नाम पर लाखों फॉलोअर्स हों यह भी जरूरी नहीं, पर उनका भावनात्मक प्रभाव उन बड़े इन्फ्लुएंसर्स से भी कहीं अधिक है जो केवल चमकते हुए जीवन को दिखाते हैं। यह पीढ़ी आत्म-सुधार, मानसिक स्वास्थ्य, आत्म-प्रेम, और दया की भाषा को नई पहचान दे रही है। वे ‘निगेटिविटी’ को जवाब देने में समय नहीं खोते, बल्कि ‘पॉजिटिविटी’ को आगे बढ़ते हैं। वे यह समझते हैं कि स्क्रीन के उस पार भी कोई इंसान है, और शायद वही इंसान एक छोटी-सी सकारात्मक पंक्ति पढ़कर अपना जीवन बदल ले।

यह आंदोलन केवल डिजिटल दुनिया में तैरता हुआ कोई विचार नहीं, बल्कि एक सामाजिक परिवर्तन है जो वास्तविक जीवन में गहरा असर डाल रहा है। हर सकारात्मक पोस्ट लोगों को यह याद दिलाती है कि संघर्ष किसी एक का नहीं, हम सभी का साथी है; और इस संघर्ष में साथ खड़े रहना भी एक कला है।

आज जब मानसिक थकान और अकेलापन एक बड़ा संकट बन चुका है, तब सोशल मीडिया की यह सकारात्मक धारा लाखों के लिए सहारा बन रही है। कई लोग स्वीकार करते हैं कि वे एक ‘मॉटिवेशनल रील’ देखकर दिनभर की उदासी से बाहर निकल आए, किसी के अनुभव को पढ़कर उन्होंने खुद को समझा, और किसी की मुस्कुराती तस्वीर देखकर उन्हें यह भरोसा मिला कि दर्द जीवन का अंत नहीं, शुरुआत भी हो सकता है। इस डिजिटल पॉजिटिविटी ने इंसान को फिर से इंसान बनाया है, नर्म, दयालु, संवेदनशील और जुड़ा हुआ। भविष्य में यह आंदोलन और भी गहराई हासिल करेगा, क्योंकि यह किसी तकनीक की ओर नहीं, बल्कि इंसान के दिल की ओर बढ़ता है।

सोशल मीडिया अब केवल मनोरंजन या तुलना का मंच नहीं, बल्कि ‘हिलिंग’ का स्थान भी बन सकता है, जहां नफरत की आवाज़ धीमी पड़ जाती है और उम्मीद की रोशनी फैलती जाती है। इस आंदोलन के युवा हमें याद दिलाते हैं कि अच्छाई कभी खत्म नहीं होती, वह बस नए रूप में लौटती है। कभी यह मोहल्लों में दिखाई देती थी, अब यह मोबाइल स्क्रीन पर खिलती है; कभी यह आँगन में बिखरती थी, अब यह डिजिटल हवा में घुलती है। और यही इस आंदोलन की सबसे खूबसूरत बात है, यह साबित करता है कि कोई परिवर्तन छोटा नहीं होता, अगर वह किसी टूटे हुए दिल को जोड़ सके, किसी अनजान चेहरे पर मुस्कान ला सके, या किसी को यह एहसास दिला सके कि वह अकेला नहीं है।
-लेखिका एनएमपीजी राजकीय कॉलेज में सहायक आचार्य हैं



