





डॉ. एमपी शर्मा.
हर समाज की असली ताक़त उसकी नई पीढ़ी होती है। वही पीढ़ी जो कल राष्ट्र का नेतृत्व करेगी, समाज को दिशा देगी और मूल्यों की लौ जलाए रखेगी। लेकिन जब यही पीढ़ी नैतिकता, अनुशासन, संयम और संस्कृति से दूर होने लगती है, तो पूरे राष्ट्र की आत्मा विचलित होने लगती है। आज का दौर सिर्फ़ तकनीक और सूचना का नहीं, चारित्रिक संक्रमण का भी है। यह प्रश्न अब केवल बौद्धिक चर्चा तक सीमित नहीं रहा कि नई पीढ़ी में नैतिक क्षरण क्यों बढ़ रहा है, यह अब हर माता-पिता, शिक्षक, चिंतक और समाज के सामने खड़ी एक खुली चुनौती है।
ये हैं प्रमुख कारण
पारिवारिक संवाद का अभाव यानी एकल परिवार, व्यस्त माता-पिता और तकनीक-आधारित पालन-पोषण ने बच्चों को ‘संस्कार’ नहीं, ‘स्क्रीन’ दिए हैं। शिक्षा का उद्देश्य बदल गया है। अब शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान या चरित्र नहीं, केवल अंक और करियर बन गया है। नैतिक शिक्षा का ह्रास हो रहा है। अधिकांश स्कूलों में अब न अनुशासन बचा है, न ही मूल्य आधारित वातावरण। सोशल मीडिया का प्रभाव। यानी झूठी चमक, बेशर्म बोल्डनेस और शॉर्टकट जिंदगी को ग्लैमराइज किया जा रहा है। और आखिर में, सबसे खतरनाक है नशे का बढ़ता दायरा। कॉलेज और स्कूल तक में नशा संस्कृति का प्रवेश बेहद चिंताजनक है।

चरित्र का संकट या संस्कारों की चूक?
आज की नई पीढ़ी ‘आज़ादी’ को ‘अधैर्य’ समझ बैठी है। अनुशासन को रूढ़िवाद और संस्कारों को पिछड़ापन मान बैठी है। “बोल्डनेस” की आड़ में बेशर्मी, और “स्टेटस” की दौड़ में संवेदनाओं की हत्या हो रही है। सोशल मीडिया के सेलिब्रिटीज़ और इन्फ्लुएंसर आज जिस जीवनशैली को आदर्श बना रहे हैं, वह आत्मा की नहीं, बाहरी दिखावे की उपज है। शिक्षकों की भूमिका अब ‘गुरु’ से हटकर ‘प्रोफेशनल’ तक सीमित हो गई है। नतीजा यह है कि बच्चों को जीवन जीने का तरीका नहीं, सिर्फ़ परीक्षा पास करने की तकनीक सिखाई जा रही है।
सुधार के लिए पहल की जरूरत
परिवार से शुरुआत कीजिए। बच्चों को ‘मोबाइल’ नहीं, ‘मूल्य’ दीजिए। संवाद बढ़ाइए, अनुभव बाँटिए, कहानियाँ सुनाइए। शिक्षा में बदलाव की जरूरत है। इसके तहत नैतिक शिक्षा, योग, ध्यान और भारतीय संस्कृति की कक्षाएँ नियमित हों। नशा नियंत्रण जरूरी। स्कूल-कॉलेजों के पास नशा बेचने वालों पर सख़्त कार्यवाही की जाए। युवाओं को खेल, संगीत, समाजसेवा और लोककलाओं से जोड़ा जाए। सोशल मीडिया का पुनर्परिभाषण जरूरी है। इसके तहत सकारात्मक और प्रेरक कंटेंट को बढ़ावा मिले।

संस्कृति से ही संबल
हमें यह समझना होगा कि यह संकट स्थायी नहीं है, न ही अजेय। बदलाव की शुरुआत हर घर से हो सकती है। माता-पिता अगर अपने बच्चों के पहले शिक्षक बनें, स्कूल अगर चरित्र निर्माण का केंद्र बने, और समाज अगर प्रेरणा देने वाला परिवेश बनेकृतो नई पीढ़ी फिर से संयम, संस्कार और सेवा के पथ पर लौट सकती है। भारत की मूल आत्मा “वसुधैव कुटुंबकम्”, “सर्वे भवन्तु सुखिनः” जैसे आदर्शों में बसी है। हमें अपने बच्चों को इन मूल्यों से जोड़ना होगा। मोबाइल की चमक से नहीं, चरित्र की लौ से ही राष्ट्र रोशन होगा।
क्या करें आप और हम?
-घर में रोज़ 10 मिनट का संवाद
-हर रविवार परिवारिक ‘कहानी-संस्कार’ सत्र
-महीने में एक दिन सामूहिक सेवा कार्य
-सोशल मीडिया पर हर दिन एक प्रेरक पोस्ट
-स्कूलों में “मासिक नैतिक मूल्य सप्ताह” का आयोजन
नई पीढ़ी के चारित्रिक पतन पर चिंता उचित है, लेकिन निराशा नहीं। अगर हम आज बीज बोएंगे, तो कल पेड़ ज़रूर फल देगा। ज़रूरत सिर्फ इतनी है कि हम तकनीक से नहीं, संस्कारों से अगली पीढ़ी को समृद्ध करें, तभी हमारा भारत सशक्त, सुसंस्कृत और संवेदनशील राष्ट्र बन पाएगा।
-लेखक सीनियर सर्जन, सामाजिक चिंतक और आईएमए के प्रदेशाध्यक्ष हैं




