





गोपाल झा.
साल 1960 था। हनुमानगढ़ टाउन की अरोड़वंश धर्मशाला के पास स्थित पार्क में हर शाम एक अलग ही माहौल होता। यही वह जगह थी जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की शाखा लगती थी। उस दौर के मुख्य शिक्षक श्यामलाल अरोड़ा थे, जो बाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए। उनके बाद पूर्णचंद चावला ने शाखा की कमान संभाली। बृजलाल मस्ताना, रतनलाल नागौरी, बृजनारायण चमड़िया, रोशनलाल प्रभाकर और डॉ. सुभाषचंद्र छाबड़ा जैसे कार्यकर्ताओं ने मिलकर टाउन में संघ की नींव मजबूत की।

इसी माहौल में एक 7-8 साल का बालक भी शाखा में आता था। उसका मकसद केवल ‘हुड़दंग मचाना’ होता। पर एक दिन उसे डांट पड़ी और संघ का महत्व समझाया गया। वही दिन था जब यह बालक जीवनभर के लिए संघ का निष्ठावान स्वयंसेवक बन गया। यह बालक थे कृष्णचंद शर्मा, जिन्हें आज हनुमानगढ़ में संघ का भीष्म पितामह कहा जाता है। कृष्णचंद शर्मा अपनी पहली जिम्मेदारी को याद करते हुए बताते हैं, ‘मैं उस वक्त घटनायक था। कार्यकर्ताओं को शाखा में लाना मेरी जिम्मेदारी थी। उस समय नई आबादी में भी शाखा लगने लगी थी। लोग बहुत कम जुड़ते थे और समाज हमें अजीब नजर से देखता था।’

धीरे-धीरे शाखा का विस्तार हुआ। अशोक कम्बोज, पूर्णचंद गौड़ और सुरेंद्र सक्सेना ने मोर्चा संभाला। अशोक कम्बोज की दबंग छवि ने संगठन को गति दी। उस दौर में मदन अरोड़ा भी शाखा से जुड़े, जो आगे चलकर पत्रकार बने, लेकिन संघ के प्रति उनकी आस्था कायम रही। किरयाना भवन के पास भी शाखा लगने लगी। समय के साथ शाखा में बच्चों की भीड़ बढ़ने लगी। शुरुआत में खेल ही माध्यम था, लेकिन धीरे-धीरे वैचारिक घुट्टी भी पिलाई जाने लगी। यही बदलाव संघ को गहराई तक समाज से जोड़ने में अहम साबित हुआ।

हनुमानगढ़ में शाखा कब शुरू हुई, इसका कोई आधिकारिक रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है। लेकिन कृष्णचंद शर्मा बताते हैं कि शाखा यहां नोहर से आई थी। यह दौर 1940 से 1945 का माना जाता है। यानी आरएसएस की स्थापना के महज 15-20 साल बाद ही हनुमानगढ़ में संघ सक्रिय हो चुका था।
आज जिला मुख्यालय पर करीब 10 शाखाएं संचालित हो रही हैं। समाज में संघ को लेकर दृष्टिकोण बदल चुका है। अब लोग स्वयं अपने बच्चों को संघ से जोड़ने लगे हैं, जो पहले सोच पाना भी मुश्किल था। कृष्णचंद शर्मा बताते हैं कि हनुमानगढ़ की धरती पर संघ की कई बड़ी शख्सियतें आ चुकी हैं। इनमें गुरुजी माधव सदाशिव गोलवलकर, दत्तोपंत ठेंगड़ी और मोरोपंत पिंगले प्रमुख नाम हैं।

हनुमानगढ़ से संघ को कई प्रचारक भी मिले, अशोक कम्बोज, विनोद कम्बोज, मुरलीधर सोनी, योगेश गुप्ता, गंगाधर शर्मा और रवि शर्मा। वहीं संघ के विकास में आत्माराम अग्रवाल, सुरेश सुमराणी और अशोक गर्ग का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा।
कृष्णचंद शर्मा को अपने संघ जीवन में कई जिम्मेदारियां मिलीं। घटनायक से लेकर गण शिक्षक, मुख्य शिक्षक, नगर कार्यवाह और नगर संघ चालक तक की भूमिकाएं उन्होंने निभाईं। एनएमपीजी कॉलेज से बतौर लाइब्रेरियन रिटायर होने के बाद उन्होंने खुद को आदर्श विद्या मंदिर के लिए समर्पित कर दिया। वे कहते हैं, ‘आज समाज में जो भी आदर और सम्मान है, उसमें संघ का बड़ा योगदान है।’

संघ में गणवेश परिवर्तन को लेकर भी शर्मा जी का दृष्टिकोण साफ है। वे कहते हैं, ‘युवाओं को हाफ पेंट पसंद नहीं थी। इसलिए बदलाव किया गया। इसका सकारात्मक असर हुआ और युवाओं का झुकाव शाखा की ओर बढ़ा।’ कृष्णचंद शर्मा मानते हैं कि संघ का सौ साल का इतिहास संघर्ष और जीवटता से भरा है। कई बार विपरीत परिस्थितियां आईं, लेकिन स्वयंसेवकों ने हार नहीं मानी। वे कहते हैं, ‘संघ ने कभी राजनीति नहीं की, इसलिए इसकी पवित्रता बची हुई है। जहां राजनीति होती है, वहां पवित्रता नहीं हो सकती।’

कृष्णचंद शर्मा वर्तमान समय को संघ का स्वर्णकाल मानते हैं। उनकी मान्यता है कि आज संगठन अपने विस्तार और प्रभाव के शिखर पर है। समाज में स्वीकार्यता भी बढ़ी है और नई पीढ़ी भी जुड़ रही है। हनुमानगढ़ के इस सफर को समझने के लिए कृष्णचंद शर्मा की यादें और अनुभव अमूल्य दस्तावेज साबित होते हैं। बचपन का ‘हुड़दंग’ आज जीवन का संकल्प बन चुका है। उनकी यात्रा इस बात का प्रमाण है कि सच्चा स्वयंसेवक अपने तन, मन और धन से संगठन को समर्पित करता है।
