



भटनेर पोस्ट ब्यूरो.
मानवता की दुनिया में कुछ लोग ऐसे निकल आते हैं, जो बिना किसी शोर-शराबे के, बिना तामझाम के, चुपचाप अपना जीवन दूसरों की जिंदगी रोशन करने में खर्च कर देते हैं। रमण झूंथरा ऐसा ही नाम है, एक ऐसा इंसान जो व्यापार के दबाव, परिवार की जिम्मेदारियों और रोज़मर्रा की चुनौतियों के बावजूद अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा जरूरतमंदों के लिए समर्पित कर चुका है।

रमण का जीवन किसी फिल्मी नायक का नहीं, बल्कि मिट्टी की खुशबू लिए एक साधारण परिवार के उस बेटे का है जो अपने भाई की याद को सेवा का रूप देता है। बचपन से ही उनमें समाजसेवा का बीज था, वह बीज जो वक्त के साथ एक विशाल बरगद बन गया। लेकिन हर बड़े काम की तरह, इस सेवा के पीछे भी एक दर्द की कहानी दबी है। छोटे भाई राहुल के असमय निधन ने परिवार को तोड़कर रख दिया। कई घर ऐसे हादसों से सिर्फ चुप्पी में डूब जाते हैं, पर रमण झूंथरा ने इस पीड़ा को अपनी ताकत बना लिया। पिता वेदप्रकाश झूंथरा की सीख, ‘ऐसा काम करो जो किसी की जिंदगी बदल दे’, ने मानो दिशा ही तय कर दी।

साल 2007 में उन्होंने ‘राहुल गुप्ता मैमोरियल चेरिटेबल ट्रस्ट’ की स्थापना की। पहला कदम उठाया निःशुल्क कृत्रिम अंग प्रत्यारोपण शिविर से। बकौल रमण झूंथरा, ‘जब पहले कैम्प में पीड़ितों की संख्या देखी, मन हिल गया। समझ आया कि यह कोई एक-दो दिन का काम नहीं, यह तो मेरा जीवन बन जाएगा।’ लगभग ऐसा ही हुआ। हनुमानगढ़ से शुरू हुई यह पहल देखते ही देखते राजस्थान की सीमाओं से बाहर निकल गई। बारूदी सुरंगों से अंग खो चुके सीमावर्ती क्षेत्रों के लोग, पहाड़ों में संघर्ष करते परिवार, लेह-लद्दाख के शीत रेगिस्तान में जीवन ढोते नागरिक, इन सब तक रमण अपने लोगों की टीम और सेना के साथ पहुँचते रहे।

कुछ लोग सिर्फ मदद करते हैं, पर रमण झूंथरा ने यह सफर जीया है। कैंप में सिर्फ कृत्रिम पैर लगवाना ही नहीं, बल्कि मरीजों को समझाना, उनका आत्मविश्वास वापस दिलाना, और सबसे बढ़कर, उनके साथ समय बिताना। आज की दुनिया में समय सबसे महंगी मुद्रा है, और रमण यह मुद्रा बड़ी दिलदारी से खर्च करते हैं। इसीलिए लोगों की नजरों में वे सिर्फ ‘सेवक’ नहीं, बल्कि अपनेपन का एहसास दिलाने वाले इंसान हैं।

जो काम उन्होंने शुरू किया, वह इतना विशाल हो गया कि अब आंकड़े गिनने में उंगलियां थक जाएं। 42 हजार से अधिक जरूरतमंदों को कृत्रिम अंग लगवाना कोई छोटा काम नहीं होता। यह सिर्फ आंकड़ा नहीं, यह 42 हजार नई ज़िंदगियाँ हैं, 42 हजार परिवारों में लौटी खुशियाँ हैं। दिहाड़ी मजदूर जो फिर से चलने लगा, महिला जो दोबारा काम पर लौट सकी, बुजुर्ग जिसने फिर से सहारा पाया, यह सब उनके जज्बे की कमाई है।

2013 में हनुमानगढ़ जंक्शन की दीप कॉलोनी में 24 घंटे निःशुल्क सेवा देने वाला कृत्रिम अंग प्रत्यारोपण एवं अनुसंधान केंद्र खोलना, मानो इस कहानी का सोने पर सुहागा था। उनका सपना था, ‘हनुमानगढ़ बैशाखी-मुक्त हो।’ साधारण सोच वाले इसे दिवास्वप्न कहकर टाल देते, पर रमण ने इसे पूरा करके दिखाया। आज 200 किलोमीटर के दायरे में बैशाखी लेकर चलने वालों की संख्या लगभग समाप्त हो चुकी है। यह बिना सरकारी फंडिंग के, बिना मशहूरी की चाह के, अपने दम पर किया गया काम है। इस दौर में ऐसा समर्पण दुर्लभ है।

राज्य सरकार, सेना, न्यायिक विभाग, सामाजिक संगठन, सब उन्हें सम्मानित कर चुके हैं, पर रमण झूंथरा की सबसे बड़ी खूबी है कि वे इन सम्मानों को कागज की तरह रखते हैं, मन पर नहीं चढ़ने देते। उनका एक ही वाक्य साफ करता है कि वे जमीन से जुड़े आदमी हैं, ‘हमें किसी पुरस्कार की जरूरत नहीं। समाज के निःशक्तजन चल सकें, यह ही सबसे बड़ा सम्मान है।’

भटनेर किंग्स क्लब के संरक्षक आशीष विजय कहते हैं, ‘रमण झूंथरा सिर्फ एक व्यक्ति के रूप में नहीं उभरते, बल्कि एक विचार के रूप में खड़े दिखते हैं, वह विचार कि मनुष्य यदि ठान ले तो किसी की जिंदगी का रुख मोड़ सकता है। उनकी कहानी आने वाली पीढ़ियों को याद दिलाती है कि आधुनिकता के शोर में भी सेवा, दया और विनम्रता जैसी पुरानी खूबियाँ सिर्फ जीवित ही नहीं, बल्कि बेहद प्रभावशाली हैं।’

वहीं, राजस्थान आर्थिक परिषद के पूर्व अध्यक्ष डॉ. संतोष राजपुरोहित कहते हैं, ‘रमण झूंथरा का जीवन हमें सिखाता है कि बड़ा बनना ऊँची कुर्सियों से नहीं होता, बल्कि उन कंधों से होता है जिन्हें आप सहारा देते हैं। आगे बढ़ना चाहें तो खुद को नहीं, किसी और को उठाकर आगे बढ़ाएँ, वही असली विरासत है।’


