


भटनेर पोस्ट ब्यूरो.
राजस्थान की नौकरशाही इन दिनों चर्चा में है। वजह, सरकार नहीं, बल्कि खुद नौकरशाही का सरकार पर ‘प्रभाव और प्रभुत्व’। इस पृष्ठभूमि में अगर कोई व्यक्ति अपने साथ पूरी ईमानदारी से खड़ा दिखता है, तो वह हैं, राज्य के मुख्य सचिव सुधांश पंत। अनुभव, विनम्रता और आत्मानुशासन के प्रतीक पंत ने हाल ही में ब्यूरोक्रेसी के भीतर एक आत्ममंथन की लहर पैदा की है। उन्होंने अफसरों को जिस भाषा में ‘नसीहत’ दी, वह उपदेश कम, चेतावनी अधिक थी, लेकिन सौम्य, सधी और संवेदनशील।

मुख्य सचिव सुधांश पंत ने कहा, ‘आप बहुत महत्वपूर्ण पदों पर हो सकते हैं, लेकिन पद को दिमाग में घुसने मत दीजिए। पद वगैरह सब चीजें अस्थाई हैं। पद आज है, कल नहीं रहेगा। लिहाज़ा यथासंभव खुद को विनम्र रखिए।’ इस एक वाक्य में शायद वह सब कुछ समा जाता है जो एक सच्चे प्रशासक को अपने भीतर आत्मसात करना चाहिए। पद की गरिमा तभी तक है जब तक उसके पीछे चरित्र का संतुलन और संवेदना की गहराई जुड़ी हो। दरअसल, पंत का यह संदेश उस मानसिकता पर चोट है जो अफसरशाही को ‘अधिकार’ से जोड़ती है, ‘कर्तव्य’ से नहीं। उन्होंने अफसरों को सीधे शब्दों में कहा, ‘कई बार शिकायत आती है कि अधिकारी बदतमीजी से पेश आते हैं, सुनते नहीं हैं, सम्मान नहीं करते। ऐसा नहीं होना चाहिए।’ उनका स्पष्ट कहना था, ‘जनता के साथ, स्टाफ के साथ, और अपने सहयोगियों के साथ व्यवहार में शालीनता, धैर्य और आदर का भाव सर्वाेपरि होना चाहिए। शासन की आत्मा, व्यवहार में झलकती है, आदेशों में नहीं।’

सुधांश पंत का यह आत्मचिंतन युगीन सन्दर्भ में अत्यंत प्रासंगिक है। जब शासन व्यवस्था में पदोन्नति, शक्ति और प्रतिष्ठा ही सफलता का मापदंड बन गई हो, तब एक मुख्य सचिव का यह कहना, ‘अच्छे अधिकारी तो आप बाद में बनेंगे, पहले अच्छा इंसान बनने का प्रयास कीजिए’ नौकरशाही की आत्मा को झकझोर देता है। उनके इस कथन में वह नैतिक आग्रह है जो आज के प्रशासनिक ढांचे से लुप्तप्राय होता जा रहा है। पंत ने यह भी स्वीकार किया कि ‘हम में से कोई भी परफेक्ट नहीं है, सब में खामियां हैं।’ यह आत्मस्वीकृति किसी भी वरिष्ठ अधिकारी के लिए दुर्लभ है, लेकिन यहीं से सुधार की शुरुआत होती है। वे चाहते हैं कि अफसर अपने अनुभवों से कमियों को पहचानें, उन्हें दूर करने का प्रयास करें और आत्ममंथन को अपनी कार्यशैली का हिस्सा बनाएं। राज्य के मुख्य सचिव का यह ष्टिकोण केवल प्रशासनिक दक्षता तक सीमित नहीं है। उन्होंने संवेदनशीलता का विस्तार सामाजिक न्याय और लैंगिक समानता तक भी किया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ‘महिला अधिकारियों और कार्मिकों के प्रति पूर्ण सम्मान और इज्जत होनी चाहिए। अगर किसी स्तर पर अमर्यादित व्यवहार देखा गया तो उसे बहुत गंभीरता से लिया जाएगा।’

पंत ने बताया कि ऐसे मामलों में सरकार पहले ही कई वरिष्ठ अधिकारियों को सेवा से बर्खास्त कर चुकी है। यह संदेश केवल अनुशासन का नहीं, बल्कि उस नैतिक मर्यादा का है जो कार्यसंस्कृति की रीढ़ होती है।

सुधांश पंत ने नौकरशाही के एक और कम चर्चित लेकिन महत्वपूर्ण पहलू ’मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य’ पर भी ध्यान दिलाया। उन्होंने अफसरों से कहा कि “अगर आप स्वस्थ और स्थिर रहेंगे, तभी अच्छा परफॉर्म कर पाएंगे।” उनकी दृष्टि में अच्छा प्रशासक वही है जो अपने भीतर संतुलन बनाए रखे, तन से भी, मन से भी। तनावग्रस्त अधिकारी न तो अच्छा निर्णय ले सकता है, न ही जनहित को सर्वाेच्च रख सकता है।

सुधांश पंत की यह पूरी पहल किसी ‘आंतरिक सुधार अभियान’ से कम नहीं है। यह वह आवाज़ है जो सिस्टम के भीतर से उठी है, विनम्रता के साथ, परन्तु दृढ़ता से। जब उन्होंने कहा कि ‘गलत करना आसान है, लेकिन इतिहास उठाकर देख लीजिए, गलत का अंत कभी सुखद नहीं रहा,’ तो यह केवल चेतावनी नहीं थी, यह एक आध्यात्मिक बोध था, जो कर्म और परिणाम के बीच के अटूट संबंध की याद दिलाता है। राजस्थान की नौकरशाही अगर इस संदेश को आत्मसात कर ले तो यह केवल शासन की पारदर्शिता नहीं बढ़ाएगा, बल्कि प्रशासन को ’मानवीयता का चेहरा’ भी लौटाएगा।

सुधांश पंत ने यह साबित कर दिया है कि नेतृत्व केवल आदेश देने का नाम नहीं, वह है, ’आत्मा से संवाद करने की कला’। इस समय जब जनता और शासन के बीच विश्वास की दूरी बढ़ती जा रही है, मुख्य सचिव का यह प्रयास उस दूरी को पाटने की दिशा में एक सशक्त कदम है। उनकी वाणी में वह सादगी है जो अनुभव से आती है, वह दृढ़ता है जो सच्चे प्रशासक की पहचान होती है, और वह विनम्रता है जो अच्छे इंसान का गहना होती है। ‘राजस्थान के मुख्य सचिव सुधांश पंत की यह पहल याद दिलाती है, पद तात्कालिक होता है, पर व्यवहार और संवेदना स्थायी। वही असली प्रशासन है, जो जनता के दिल में सम्मान के रूप में दर्ज हो, आदेशपत्र में नहीं।’


