





भटनेर पोस्ट ब्यूरो.
लोकतंत्र में नेताओं का व्यवहार ही उनकी असली पहचान बनाता है। लेकिन जब वही नेता हिंसक होते दिखें तो लोकतंत्र के संस्कारों पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। राजस्थान में तेजी से उभर रहे युवा नेता नरेश मीणा बार-बार इसी बहस के केंद्र में आ खड़े हुए हैं।

झालावाड़ स्कूल हादसे के पीड़ित परिवारों को 50-50 लाख रुपये मुआवज़े की मांग को लेकर चल रहा उनका अनशन चौथे दिन भी जारी है। मगर आंदोलन से ज्यादा चर्चा उनके गुस्से और हिंसक अंदाज़ की हो रही है। कल अनशन स्थल पर उन्होंने समर्थकों को थप्पड़ और लात मारी थी, अब मंच पर भीड़ बढ़ने पर पत्थर फेंके और कार्यकर्ताओं को लातों से पीटा।

यह कोई पहला मौका नहीं है। विधानसभा उपचुनाव के दौरान एसडीएम को थप्पड़ मारने की घटना उन्हें महीनों जेल तक ले गई थी। अब फिर से अपने ही समर्थकों पर हाथ उठाकर उन्होंने अपनी छवि को विवादों में डाल दिया है।

राजस्थान की राजनीति में गुस्सा नया नहीं है। किरोड़ी लाल मीणा हों या आरएलपी प्रमुख हनुमान बेनीवाल। दोनों अपने कड़े तेवर और फटकार के लिए जाने जाते हैं। लेकिन जहां ये नेता शब्दों तक सीमित रहते हैं, वहीं नरेश मीणा बार-बार हिंसक रूप में सामने आते हैं। यही वजह है कि उनकी लीडरशिप पर अब सवाल उठने लगे हैं।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि नरेश मीणा का आक्रामक तेवर कभी-कभी उन्हें भीड़ में नायक बना देता है, मगर बार-बार समर्थकों को पीटना उनके आंदोलन की गंभीरता और विश्वसनीयता दोनों को कम कर रहा है। उनकी राजनीति यदि पीड़ित परिवारों की आवाज़ बनने की है, तो हिंसक अंदाज़ उस आवाज़ को कमजोर कर सकता है। इसलिए सवाल यह है कि क्या नरेश मीणा अपने गुस्से को आंदोलन की ताकत बनाएंगे या फिर वही गुस्सा उनकी राजनीतिक यात्रा का सबसे बड़ा अवरोध साबित होगा?






