





गोपाल झा.
भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले 88.49 पर फिसल गया है। यह सिर्फ मुद्रा का आंकड़ा नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र और अर्थव्यवस्था की कहानी का प्रतीक है। याद कीजिए, डॉलर के मुकाबले जब रुपया 60 था और देश का नेतृत्व डॉ. मनमोहन सिंह जैसे विश्वविख्यात अर्थशास्त्री के हाथों में था। उस समय गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह नारा उछाला था कि ‘रुपया गिरने का मतलब है, प्रधानमंत्री की छवि गिरती है।’ टीवी चैनलों पर बहसें होती थीं, अखबारों में आलेख छपते थे, और विपक्ष सत्ता को कठघरे में खड़ा करता था।

आज स्थिति और भी गंभीर है। रुपया 88.49 पर है, लेकिन नरेंद्र मोदी स्वयं 11 साल से अधिक समय से प्रधानमंत्री हैं। विडंबना देखिए कि गिरावट के इस ऐतिहासिक दौर में भी न केवल वे स्वयं को ‘सर्वश्रेष्ठ’ बताने से नहीं चूकते, बल्कि समर्थकों का एक बड़ा वर्ग उन्हें ‘विश्व नेता’ मानकर जयघोष करता है। तब और अब का यह विरोधाभास सिर्फ अंकों का नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति और मीडिया की बदल चुकी प्राथमिकताओं का आईना है।

वह दौर था जब विपक्ष की आवाज़ को महत्व मिलता था, जनता सवाल पूछती थी और मीडिया सत्ता से टकराने का साहस रखता था। आज मीडिया प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी स्क्रिप्ट को ही राष्ट्र की सच्चाई मानकर सुना रहा है। विपक्ष चीख रहा है, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं। सत्तापक्ष के ‘धर्मांध’ समर्थक भक्ति में इतने डूब चुके हैं कि वे अपने भविष्य की रोशनी तक बुझाने को तैयार हैं।

सवाल यह है कि क्या पिछले 12 वर्षों में भारत इतना बदल गया कि सच और झूठ का फर्क ही मिट गया है? क्या यह लोकतंत्र की परिपक्वता है या फिर भीड़तंत्र का उदय? जनता को यह सोचने की ज़रूरत है कि आंखों पर बंधी पट्टी उतारकर असली हालात देखे।

रुपए की गिरावट का असर हर घर तक पहुंचता है। महंगाई बढ़ती है, जेब कटती है। विदेशी शिक्षा और पर्यटन महंगे हो जाते हैं। सीधा सा गणित है, समझने के लिए। जब डॉलर 50 पर था, तब भारतीय छात्रों को 50 रुपए में 1 डॉलर मिलता था। आज वही छात्र 88.49 रुपए खर्च कर रहे हैं। फीस से लेकर रहन-सहन और रोज़मर्रा की ज़रूरतों पर सीधा असर पड़ रहा है। उद्योग जगत आयात महंगा होने से जूझ रहा है और निर्यात पर अमेरिकी टैरिफ का डंडा पड़ा है। डॉलर की मजबूती और अमेरिकी नीतियों के सामने भारतीय रुपया लगातार कमजोर हो रहा है, लेकिन ठोस नीतिगत रणनीति का अभाव साफ झलकता है।

राजनीतिक दृष्टि से यह सवाल और भी बड़ा है। जब नरेंद्र मोदी विपक्ष में थे, तो उन्होंने डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरावट को सीधे प्रधानमंत्री की छवि से जोड़ा। अब जबकि रुपया इतिहास के सबसे निचले स्तर पर है, क्या वे उसी पैमाने पर खुद को कसौटी पर कसेंगे? क्या वे यह स्वीकार करेंगे कि यह उनकी नीतियों की विफलता है? या फिर एक बार फिर वे इसे विपक्ष, वैश्विक परिस्थितियों या ‘षड्यंत्र”’ बताकर बच निकलने की कोशिश करेंगे?

लोकतंत्र में सवाल पूछना अपराध नहीं, बल्कि कर्तव्य है। रुपया गिरता है तो उसका बोझ सबसे पहले गरीब और मध्यमवर्गीय परिवार पर पड़ता है। प्रधानमंत्री की छवि से ज्यादा महत्वपूर्ण है आम नागरिक की जेब और उसका भविष्य। आज ज़रूरत है सच को सच कहने की। झूठ पर पहरा है, लेकिन सच को दबाने की कोशिश हमेशा असफल होती है। सवाल तीखा है, लेकिन लोकतांत्रिक मुल्क के लिए सीधा और सटीक है। क्या सत्ता यह स्वीकार करेगी कि रुपया सिर्फ मुद्रा नहीं, बल्कि जनता के विश्वास का पैमाना भी है?

जनता को सोचना होगा। आंखों पर बंधी पट्टी उतारनी होगी। सत्ता के खेल को समझना होगा। वरना कल जब इतिहास लिखा जाएगा तो दर्ज होगा कि सच सबकी आंखों के सामने था, लेकिन किसी ने देखने की हिम्मत नहीं की।
जागिए, सोचिए और सवाल कीजिए, क्योंकि लोकतंत्र में खामोशी सबसे बड़ी हार है।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं



