






डॉ. संतोष राजपुरोहित.
भारतीय समाज में विवाह केवल दो व्यक्तियों का नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन माना जाता है। यही कारण है कि शादी सदियों से सामाजिक और सांस्कृतिक उत्सव का स्वरूप रखती आई है। किंतु बदलते समय में विवाह अब केवल संस्कार न रहकर ‘स्टेटस सिंबल’ भी बन गया है। महंगे प्री-वेडिंग शूट, डेस्टिनेशन वेडिंग, डिजाइनर परिधान, लग्ज़री होटलों में भव्य आयोजन और सोने-हीरे के आभूषणों पर भारी खर्च, आम लोगों को भी प्रभावित करने लगे हैं। 2024-25 के आंकड़ों के अनुसार भारत का विवाह उद्योग लगभग 5 लाख करोड़ रुपये का है और यह हर साल औसतन 8-10 फीसद की दर से बढ़ रहा है।

विवाह में बढ़ते खर्च के कई कारण बताए जाते हैं। इनमें प्रमुख है सामाजिक प्रतिष्ठा की होड़। लोग शादी को अपने सामाजिक रुतबे से जोड़ने लगे हैं। समाज में “क्या कहेंगे लोग” की मानसिकता दिखावे को बढ़ावा देती है। इसके लिए मीडिया और सोशल प्लेटफॉर्म्स का प्रभाव भी कम जिम्मेदार नहीं। फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर दिखने वाले भव्य विवाह आयोजनों ने युवाओं की सोच को प्रभावित किया है। हाल के वर्षों में यह ट्रेंड तेजी से बढ़ा है। एक औसत प्री-वेडिंग शूट पर 50 हजार से 2 लाख रुपये तक खर्च हो जाता है। वर्तमान में सोने की कीमत लगभग एक लाख प्रति 10 ग्राम के आसपास पहुँच चुकी है, जिससे गहनों पर खर्च स्वतः बढ़ रहा है। विवाह के लिए आसानी से उपलब्ध होने वाले पर्सनल लोन ने लोगों को अधिक खर्च करने की प्रवृत्ति दी है।

इसके सामाजिक और आर्थिक परिणाम देखने को मिल रहे हैं। मसलन, मध्यमवर्ग पर आर्थिक बोझ। कई परिवार अपनी आय से अधिक खर्च करते हैं, जिससे कर्ज और आर्थिक तनाव बढ़ता है। महंगी शादियाँ अप्रत्यक्ष रूप से दहेज जैसी कुप्रथा को भी मजबूती देती हैं। महंगे आयोजन गरीब और मध्यम वर्ग में हीनभावना और असमानता की खाई बढ़ाते हैं। भव्य सजावट, पटाखों और भोजन की बर्बादी से पर्यावरण पर नकारात्मक असर पड़ता है। विवाह का मूल स्वरूप सामाजिक बंधन और संस्कार है, लेकिन खर्चीले आयोजन इसे केवल दिखावे का साधन बना रहे हैं।

बेशक, विवाह समारोह महंगे होते जा रहे हैं। ऐसे में खर्च कम करने के उपायों पर गौर करना आवश्यक है। हमें लगता है, समाज को इस मसले पर सोचना होगा। सादगीपूर्ण विवाह को प्रोत्साहन देने की जरूरत है। विवाह को परंपरा और संस्कार के रूप में मान्यता देते हुए सीमित मेहमान और साधारण आयोजन किए जाएँ। कई राज्यों ने सामूहिक भोज में सीमित व्यंजन नीति लागू की है, जिसका विस्तार होना चाहिए। सरकार और सामाजिक संगठनों को ‘सादा विवाह, श्रेष्ठ विवाह’ अभियान चलाना चाहिए। महंगे आभूषणों की बजाय हल्के-फुल्के गहने और स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देना चाहिए। निमंत्रण कार्ड और फोटो-वीडियो की जगह ई-कार्ड और ऑनलाइन शेयरिंग से भी खर्च कम हो सकता है। विवाह को स्टेटस की बजाय संस्कार के रूप में देखने का दृष्टिकोण विकसित करना होगा।

कहना न होगा, आज विवाह में बढ़ते खर्च सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से चिंता का विषय बन गए हैं। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ अब भी बड़ी आबादी गरीबी और बेरोजगारी से जूझ रही है, वहाँ लाखों-करोड़ों रुपये विवाह में खर्च करना संसाधनों की बर्बादी है। सादगीपूर्ण विवाह केवल आर्थिक बचत ही नहीं बल्कि सामाजिक समानता और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में भी एक बड़ा कदम है। आवश्यकता इस बात की है कि समाज दिखावे की दौड़ छोड़कर विवाह को उसके मूल स्वरूप संस्कार और सामाजिक बंधन में वापस लाए।
-लेखक भारतीय आर्थिक परिषद के सदस्य हैं




