



गोपाल झा.
कभी फुर्सत में खड़े होकर क्षितिज को निहारिए… जहाँ आकाश धरती से मिलता है, वहाँ कोई सीमा नहीं होती, केवल एक एहसास होता है, विस्तार का, गहराई का और समर्पण का। कुछ वैसा ही एहसास भारत को जानने में होता है। एक ओर हिमालय की धवल चोटियाँ हैं, तो दूसरी ओर समुद्र की लहरों का शाश्वत निनाद। एक ओर राजस्थान की तपती रेत, तो दूसरी ओर मेघालय की भीगी हवाएँ। लेकिन इन सबके बीच जो सबसे गहरा और अद्भुत सच है, वह है विविधता में एकता। मुझसे अगर कोई पूछे कि भारतीय होने के नाते भारत की सबसे बड़ी खासियत क्या लगती है, तो मैं बिना झिझक कहूँगा, यहाँ की विविधता में समाई एकता। भारत वह देश है जहाँ हर सौ कोस पर पानी ही नहीं, भाषा, स्वाद, रीति, और सोच तक बदल जाती है। लेकिन जब कोई विदेशी भूमि पर खड़ा भारतीय कहता है, ‘मैं भारतीय हूं’ तो वह इन तमाम विविधताओं को समेटे एक अखंड पहचान बन जाता है। वह पहचान जिसकी कोई जाति नहीं, कोई क्षेत्र नहीं, कोई उपासना-पद्धति नहीं, केवल भारतीयता है। हमारा देश एक जीवंत माला की तरह है, जहाँ प्रत्येक मनका अलग है, लेकिन धागा एक ही है। वह धागा है-भारतीयता की भावना। बचपन से सुनते आए हैं, ‘एकता में बल है।’ पर भारत सिखाता है कि विविधता में भी बल हो सकता है, यदि उसे अपनाने की दृष्टि हो, स्वीकार करने का साहस हो और सहेजने का संस्कार हो।

मैंने अब तक लगभग 15 से 17 राज्यों की यात्रा की है। हर यात्रा एक नई किताब के पन्नों की तरह खुलती गई। जितना देखा, उससे अधिक अभी शेष है। भारत को समझना एक साधना है, जीवन पर्यन्त चलने वाली।
आज जब सोशल मीडिया बहसों का अखाड़ा बनता जा रहा है, मैं अक्सर अपने मित्रों से कहता हूँ, ‘बहसों में ऊर्जा नष्ट करने से बेहतर है कि देश का भ्रमण कीजिए। और यदि भ्रमण न कर सकें, तो किताबों से संवाद कीजिए। पढ़िए, भारत को, इसके अतीत को, इसकी परंपराओं को, इसकी चुनौतियों को और इसकी संभावनाओं को।’ किन्तु पढ़ना भी केवल मुखपृष्ठ देखना नहीं है। भारत को समझने के लिए इतिहास की गहराइयों में उतरना होगा। महाभारत की राजनीति से लेकर बौद्ध धर्म की करुणा तक, अशोक की धम्म चेतना से लेकर अकबर की सुलह-ए-कुल नीति तक, गाँधी के सत्याग्रह से लेकर अंबेडकर के संविधानवाद तक। यह देश केवल घटनाओं का सिलसिला नहीं, विचारों का प्रवाह है।

लेकिन आज कुछ ताकतें हैं जो इस सुंदर प्रवाह को बांधने की कोशिश कर रही हैं। भारत की खूबसूरती पर चोट तब पहुँचती है, जब कोई किसी भाषा को श्रेष्ठ और दूसरी को हेय कहता है। जब कोई एक धर्म के नाम पर दूसरे की अस्मिता पर सवाल उठाता है। जब कोई क्षेत्रीयता के नाम पर राष्ट्र की अखंडता को चुनौती देता है। ऐसे प्रयास भारत की रूह पर वार करते हैं।
इसलिए यह आवश्यक है कि हम बार-बार अपनी जड़ों की ओर लौटें। भारत की आत्मा को महसूस करें, उसकी सादगी में, उसकी परंपराओं में, उसकी कथा-कहानियों में, उसकी लोककला में, उसके मंदिरों की घंटियों और मस्जिदों की अज़ानों में, उसके गुरुद्वारों के लंगर और गिरजाघरों की प्रार्थनाओं में। भारत को जानना दरअसल स्वयं को जानने जैसा है। यह वह भूमि है जहाँ विचारों को दबाया नहीं गया, उन्हें बहस और संवाद में गढ़ा गया। जहाँ राम और रावण, कृष्ण और कंस, कबीर और तुलसी, सब मिलकर एक ही सांस्कृतिक धरातल पर खड़े मिलते हैं।

किसी कवि ने कहा है, ‘भारत एक विचार है, जिसे हथियारों से नहीं, संस्कारों से जीता जाता है।’ और इस विचार की मूल आत्मा है, विविधता में एकता। तो अगली बार जब आप इस देश की राजनीति से क्षुब्ध हों, किसी अफवाह या प्रचार से विचलित हों, तो एक बार देश के भीतर झाँकिए, गहराई से।
कभी एक गाँव के स्कूल में बच्चों की आँखों में चमक देखिए, कभी एक खेत में काम कर रहे किसान के पसीने की सुगंध महसूस कीजिए, कभी किसी बुज़ुर्ग की कहानी सुनिए, जिसमें आधा भारत समाया होगा। तब समझ में आएगा कि भारत केवल एक देश नहीं है, यह एक जीवंत कविता है, जिसे हर पीढ़ी ने अपने-अपने शब्दों में लिखा है। और हमारी जिम्मेदारी है कि हम इस कविता को विकृत न होने दें। क्योंकि जब तक भारत की विविधता सुरक्षित है, तब तक इसकी एकता अमर है। और जब तक यह एकता अमर है, तब तक दुनिया का कोई भी देश भारत से सुंदर नहीं हो सकता।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं



