




गोपाल झा.
30 मई 1826 को जब कलकत्ता (अब कोलकाता) की गलियों में हिंदी भाषा का पहला समाचारपत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ प्रकाशित हुआ, तब शायद किसी ने भी कल्पना नहीं की होगी कि यह छोटा-सा बीज एक दिन वटवृक्ष बनेगा। इस ऐतिहासिक दिन की नींव रखने वाले यशस्वी युगद्रष्टा पंडित जुगलकिशोर शुक्ल को यदि हम हिंदी पत्रकारिता का भीष्म पितामह कहें, तो यह किसी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘उदन्त मार्तण्ड’ का हर मंगलवार को निकलना, मात्र 500 प्रतियों का प्रकाशन और एक मिशनरी भावना के साथ जनजागरण का बीड़ा उठाना, उस युग की महानतम सामाजिक क्रांति थी।
आज, 30 मई 2025 को हम हिंदी पत्रकारिता के 199वें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं। यह कालखंड महज वर्षों की गिनती नहीं, बल्कि विचार, शब्द, संकल्प और समाज को दिशा देने वाले कलम के सशक्त प्रयोग की गवाही है। परन्तु, प्रश्न यह है कि आज हम किस दौर में हैं? क्या पत्रकारिता अब भी उतनी ही पवित्र, उद्देश्यपूर्ण और समाजनिष्ठ है, जितनी उस समय थी जब जुगलकिशोर जी ने इसकी मशाल जलाई थी?

मैंने स्वयं 1999 में जब अपना पहला अखबार ‘इंदुशेखर’ निकाला, तो उसकी प्रसार संख्या 1000 थी। तब वह आंकड़ा मेरे लिए न सिर्फ गर्व का विषय था, बल्कि यह भी दर्शाता था कि समाज के पास अब भी समाचार के नाम पर कुछ सत्य और सजगता की भूख बची हुई है। तब पत्रकारिता एक जिम्मेदारी थी, एक सेवा थी, एक संकल्प था।
परंतु अब… आज जब मैं 29 वर्षों के अपने पत्रकारिता जीवन की पगडंडियों पर पीछे मुड़कर देखता हूं, तो यह सवाल बार-बार सिर उठाता है, क्या यही वह पत्रकारिता है जिसके लिए हमने कलम उठाई थी? पहले पत्रकारिता मिशन थी, अब वह केवल प्रोफेशन है। अब यह एक बाजारू खेल बन गया है, जहां खबरें बिकती हैं, चरित्र बिकते हैं, और सबसे दुखद, विश्वास बिकता है। आज पत्रकार बनना कठिन नहीं है, पर सच्चा पत्रकार बने रहना सबसे कठिन है। ऐसे भी लोग पत्रकार बन चुके हैं, जो ठीक से दस शब्द शुद्ध नहीं लिख सकते। न भाषा की समझ, न समाचार की गहराई, न समाज के प्रति उत्तरदायित्व, तब पत्रकारिता केवल एक आवरण बनकर रह जाती है, जिसके पीछे छुपा होता है एक नंगा व्यापार।

आज की पत्रकारिता में फेक न्यूज एक गंभीर बीमारी बन चुकी है। डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की तीव्रता और पहुंच ने जहां एक ओर आमजन को सूचनाओं से जोड़ा है, वहीं दूसरी ओर भ्रामक खबरों की बाढ़ से सत्य और असत्य के बीच की रेखा धुंधली कर दी है। पत्रकार की जिम्मेदारी अब केवल खबर देने तक सीमित नहीं रह गई, बल्कि अब वह समाज की दिशा तय करने वाला दर्पण बन गया है। ऐसे में यदि दर्पण ही धुंधला हो, तो समाज अपनी सूरत कैसे देखेगा?
पत्रकारिता का मूल तत्व है, विवेक, ईमानदारी और जनता के प्रति उत्तरदायित्व। लेकिन आज ऐसे बहुत से लोग हैं जो पत्रकारिता की आड़ में सिर्फ व्यक्तिगत लाभ, राजनीतिक गठजोड़ और छवि निर्माण का औजार तलाशते हैं। और यह विडंबना ही है कि समाज को भी ऐसे ही पत्रकार पसंद आने लगे हैं। जनता जब सरकार बदल सकती है, तो पत्रकारिता के नाम पर धंधा करने वालों को बेनकाब क्यों नहीं कर सकती?
यह सही है कि अपवाद हर काल में होते हैं, और पत्रकारों में भी पूर्णतः निष्कलंक मिलना कठिन है। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि आज के कई युवा पत्रकार, जिनके पास उच्च डिग्रियां हैं, वे समाचार लेखन की उस गूढ़ता और संवेदनशीलता से अछूते हैं, जो हमने अपने पुराने साथियों में देखी थी। अनुभव, पत्रकारिता का सबसे बड़ा शिक्षक होता है। और सीखना, वह तो एक निरंतर साधना है, जिसके बिना यह क्षेत्र अधूरा है।
मेरे लिए पत्रकारिता केवल पेशा नहीं, बल्कि धर्म है। मेरी कलम, समाज की पीड़ा की भाषा है। मैं गर्व से कहता हूं कि मैं पंडित जुगलकिशोर शुक्ल की परंपरा का अंश हूं। मैं उस विरासत को आगे बढ़ा रहा हूं, जहां पत्रकार न्याय का प्रहरी होता है, और सत्य का साधक।
हमें यह याद रखना होगा कि समाचारपत्र केवल कागज पर छपे शब्द नहीं होते, वे उस सत्य की दस्तक हैं जो सत्ता से सवाल करता है, समाज को जागरूक करता है और पीड़ितों को आवाज देता है। हिंदी पत्रकारिता दिवस पर यह संकल्प लें कि हम इस माध्यम को स्वस्थ, स्वच्छ और सजग बनाएंगे। समाज और पाठकों का समर्थन ही पत्रकार की असली ताकत है। और जब तक यह समर्थन हमें मिलता रहेगा, तब तक हमारी कलम सच की मशाल जलाती रहेगी।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं



