




डॉ. एमपी शर्मा.
स्त्री सशक्तिकरण कोई सरकारी नारा नहीं, कोई योजना की लाइन में खड़ा कागज़ी वादा नहीं। ये तो एक सोच है, एक बुनियादी बदलाव है, जो किसी दफ्तर में नहीं, किसी फाइल में नहीं, बल्कि घर के आँगन से शुरू होता है। वो जगह जहाँ बेटी पहली बार मुस्कुराती है, पहला कदम उठाती है और सबसे पहले सवाल पूछती है, ‘मैं कौन हूँ?’ जब तक हम उस सवाल का जवाब उसे खुद ढूँढने नहीं देंगे, तब तक हर सशक्तिकरण की बात अधूरी ही रह जाएगी।
अक्सर हम बेटियों को बताते हैं, ‘तू तो मेरी लाडली है, ‘तेरे लिए अच्छा दूल्हा ढूंढेंगे’, ‘तू हमारी इज्जत है’, लेकिन क्या कभी हमने ये कहा कि ‘तू खुद एक मुकम्मल इंसान है, अपनी पहचान के साथ, अपनी पसंद-नापसंद के साथ?’ बचपन से ही यह सिखाना ज़रूरी है कि वह किसी की बहन, बेटी, बीवी या माँ बनने से पहले एक स्वतंत्र सोच रखने वाली इंसान है। रिश्ते उसकी पहचान का हिस्सा हो सकते हैं, पर पूरी पहचान नहीं।

जब वह खुद से पूछने लगेगी, ‘मैं कौन हूं?’ और जवाब भी खुद ही खोजने लगेगी, तभी असली सशक्तिकरण की नींव पड़ेगी।
हमारी बेटियां बचपन से ‘चुप रहो’, ‘बोलना नहीं’, ‘क्या सोचेंगे लोग’ जैसे वाक्य सुन-सुनकर बड़ी होती हैं। लेकिन क्या यही सिखाना ठीक है? सहनशीलता एक गुण है, पर तब तक, जब तक वो आत्मसम्मान को ना तोड़े। हमें अपनी बेटियों को यह सिखाना होगा कि अगर कुछ गलत हो रहा है, तो ‘ना’ कहना उनका अधिकार है। अन्याय के खिलाफ बोलना, मदद माँगना या विरोध करना कमजोरी नहीं, समझदारी है।
हमेशा सिखाएं, ‘गलत को सहना भी एक तरह से उसे बढ़ावा देना है।’ आज भी कई घरों में लड़कियों को सिर्फ पढ़ने की इजाज़त मिलती है, कमाने की नहीं। पर सशक्त वही होता है जो अपने फैसले खुद ले सके, और इसके लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता बेहद ज़रूरी है। उन्हें यह समझाना होगा कि नौकरी करना, अपने पैरों पर खड़ा होना कोई ‘विकल्प’ नहीं है, ये तो अनिवार्य है। क्योंकि जब एक लड़की कमाने लगती है, वो सिर्फ अपने खर्च नहीं चलाती, वो अपनी पूरी जिंदगी का रुख बदल सकती है।
हमने लड़कियों को हमेशा दूसरों के लिए जीना सिखाया। परिवार के लिए, समाज के लिए, रिश्तों के लिए। लेकिन कभी यह नहीं बताया कि खुद के लिए जीना भी ज़रूरी है। बलिदान तभी तक सुंदर है जब वो दिल से हो, जबरन नहीं। अपनी खुशी, स्वास्थ्य, शिक्षा और सम्मान को महत्व देना कोई स्वार्थ नहीं, यह एक इंसान का मूल अधिकार है। सिखाएं कि खुद से प्यार करना, खुद को महत्व देना, सबसे पहली ज़िम्मेदारी है।
सरकार लाख योजनाएं बना ले, किताबें हजार छप जाएं, पर जब तक घर का माहौल नहीं बदलेगा, तब तक कोई बदलाव नहीं आएगा। बेटियों को भी वही मौके दें जो बेटों को मिलते हैं, खेलने की, पढ़ने की, करियर चुनने की, फैसले लेने की। घर में अगर उन्हें बराबरी, सम्मान और सुरक्षा मिल जाए, तो यकीन मानिए, बेटी आसमान छूने से नहीं हिचकेगी। माता-पिता अगर यह सोच बदल दें, तो समाज खुद-ब-खुद बदलने लगेगा।
एक सशक्त महिला वो नहीं जो ऊँची आवाज़ में बोले, बल्कि वो है जो अपनी आवाज़ सुनना जानती हो। जो सपने देखे, उन्हें पूरा करने का हौसला रखे। जो हालात से समझौता ना करे, बल्कि उन्हें बदलने का जज़्बा रखे। और यह सब तब शुरू होगा जब बचपन से ही उसके मन में यह बात गूंजे, ‘तुम्हारी सबसे पहली ज़िम्मेदारी खुद के प्रति है। तुम्हारी पहचान तुम खुद हो।’
-लेखक सामाजिक चिंतक और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं




