


गोपाल झा.
उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने की घोषणा कर चुके जगदीप धनखड़ की यात्रा केवल एक संवैधानिक पदाधिकारी की नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति के बहुरंगी रंगमंच पर एक बेहद दिलचस्प और पेचीदा किरदार की कहानी है। उनका सफर इस बात का प्रमाण है कि आज की राजनीति में वैचारिक प्रतिबद्धता की बजाय व्यावहारिक लचीलापन और अवसर की पहचान ही सत्ता के शिखर तक पहुंचने की कुंजी बनती जा रही है।
धनखड़ के सियासी सफर को देखें तो यह स्पष्ट है कि उन्हें न तो कभी किसी विचारधारा से गहरा जुड़ाव रहा और न ही किसी राजनीतिक दल के साथ जीवनपर्यंत निष्ठा। वे एक ऐसे नेता रहे हैं जो हर दौर में समीकरणों को भांप कर चाल बदलते रहे। यह राजनीति का वह संस्करण है जिसे ‘पॉलिटिकल सेन्स’ कहा जाता है, जहां सिद्धांतों की जगह समय का तापमान नापा जाता है।
धनखड़ के राजनीति में प्रवेश का श्रेय जाता है हरियाणा के दिग्गज नेता और पूर्व उप प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल को। 1989 में जनता दल से वे झुंझुनूं से लोकसभा पहुंचे और वीपी सिंह मंत्रिमंडल में शामिल हुए। तब भारत की राजनीति में मंडल-कमंडल का दौर था। वीपी सिंह की सरकार बीजेपी के समर्थन से चल रही थी, लेकिन सत्ता के इस समीकरण को ज्यादा दिन तक टिकना नहीं था।
सरकार गिरी, और चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। इस सरकार को कांग्रेस का बाहरी समर्थन मिला, और बताया जाता है कि इस गठजोड़ में धनखड़ की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इस दौरान वे राजीव गांधी के करीबी बन गए और यहीं से उनकी कांग्रेस में एंट्री हुई। लेकिन पाला बदलने की यह कहानी यहीं नहीं रुकी।

कांग्रेस में आने के बाद 1991 में उन्हें अजमेर से लोकसभा का टिकट मिला, लेकिन राजेश पायलट की नाराजगी ने लोकसभा जाने की उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। यह घटना बताती है कि कांग्रेस में उनका प्रवेश शीर्ष के भरोसे तो था, लेकिन स्थानीय राजनीति में उन्हें स्वीकृति नहीं मिली।
1993 में धनखड़ ने कांग्रेस के टिकट पर किशनगढ़ विधानसभा सीट जीती, लेकिन इसके बाद उनका सियासी ग्राफ स्थिर नहीं रहा। 1999 में शरद पवार की बगावत के साथ वे एनसीपी में पहुंचे, लेकिन जल्द ही वहां से भी मोहभंग हुआ। वर्ष 2000 में उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया।
वसुंधरा राजे से प्रारंभिक निकटता के बाद धनखड़ उनके आलोचक बन गए, और इसके चलते बीजेपी में उन्हें लंबे समय तक हाशिये पर रहना पड़ा। लेकिन जब मोदी-शाह युग आया, तब पार्टी में उनका पुनरुत्थान हुआ। 2019 में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बनाकर उन्हें पहली बार एक संवैधानिक पहचान मिली।

बंगाल में राज्यपाल रहते हुए उनका टकराव ममता बनर्जी सरकार से किसी खुले राजनीतिक संघर्ष से कम नहीं था। राज्यपाल के रूप में भी वे शुद्ध राजनीतिक तेवर में रहे, प्रेस कॉन्फ्रेंस, ट्वीट्स, और त्वरित प्रतिक्रियाओं से वे ‘सक्रिय राज्यपाल’ बन गए थे। यही आक्रामकता बाद में उन्हें उपराष्ट्रपति पद तक ले गई, लेकिन वहां भी वे नैतिकता, मर्यादा और दलगत दूरी के ‘परंपरागत खांचों’ में फिट नहीं बैठे।
10 जुलाई को उन्होंने कहा था, ‘ईश्वर की कृपा रही तो अगस्त 2027 में रिटायर हो जाऊंगा।’ लेकिन महज 11 दिन बाद, 21 जुलाई की रात इस्तीफा देने की घोषणा ने राजनीति में हलचल पैदा कर दी। यह इस्तीफा क्या केवल स्वास्थ्य या व्यक्तिगत कारणों से था या फिर पार्टी या सत्ता के भीतर चल रहे अंतर्विरोधों का परिणाम, यह सवाल उठना स्वाभाविक है।
धनखड़ की पूरी यात्रा भारत की राजनीति में वैचारिक बदलाव की एक केस स्टडी है। जहां दल, विचारधारा, और नेतृत्व के प्रति निष्ठा से ज्यादा समय के साथ बहाव में बहने की कला ने लोगों को सत्ता के शिखर पर पहुंचाया। यह रास्ता आलोचकों को ‘विचारहीन अवसरवादिता’ जैसा लगता है, जबकि समर्थकों को ‘राजनीतिक सूझबूझ’।
-लेखक राजनीतिक विश्लेषक और भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं

